
झारखंड की राजधानी रांची में स्थित ‘रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस’ (रिनपास) ने 4 सितंबर को अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर लिए हैं। यह संस्थान सिर्फ एक अस्पताल नहीं है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के इतिहास, विकास और संघर्ष का एक जीवंत प्रतीक है। एक सदी पहले जो ‘ल्यूनेटिक एसाइलम’ के नाम से शुरू हुआ था, आज वह आधुनिक मनोचिकित्सा, काउंसलिंग और पुनर्वास का केंद्र बनकर लाखों लोगों की जिंदगी में उम्मीद की नई रोशनी भर रहा है। यह 100 साल का सफर केवल एक संस्थान का नहीं, बल्कि समाज की बदलती सोच और मानसिक बीमारियों के प्रति बढ़ती जागरूकता की कहानी है।
एक सदी का ऐतिहासिक सफर: ‘ल्यूनेटिक एसाइलम’ से ‘रिनपास’ तक
रिनपास की कहानी 1795 में बिहार के मुंगेर में एक छोटे से मानसिक चिकित्सालय के रूप में शुरू हुई। यह भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की शुरुआत का एक शुरुआती कदम था। 1821 में इसे पटना ले जाया गया, लेकिन मरीजों की बढ़ती संख्या और जगह की कमी के कारण एक नई, शांत और हरियाली भरी जगह की तलाश शुरू हुई। यह तलाश 4 सितंबर, 1925 को रांची के कांके में समाप्त हुई, जहाँ इस संस्थान को आधिकारिक रूप से स्थानांतरित कर दिया गया। तब यहाँ केवल 110 मरीज थे, लेकिन जल्द ही यह पूरे संयुक्त भारत के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। उस दौर में, यहाँ न केवल बिहार, बंगाल और ओडिशा से, बल्कि आज के बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) से भी मरीज इलाज के लिए आते थे।

बदलते नाम, बदलती पहचान
समय के साथ संस्थान का नाम भी बदला, जो इसके विकास और बदलते दृष्टिकोण को दर्शाता है। इसे पहले ‘इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ’ कहा गया, फिर 1958 में ‘रांची मानसिक आरोग्यशाला’ नाम दिया गया। लेकिन सबसे बड़ा मोड़ 1994 में आया, जब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इसे स्वायत्तता मिली। 10 जनवरी, 1998 को यह ‘रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस’ (रिनपास) के नए नाम के साथ सामने आया, जो इसकी आधुनिक और व्यापक सेवाओं का प्रतीक बन गया।
यह नामकरण सिर्फ एक बदलाव नहीं था, बल्कि यह मानसिक स्वास्थ्य के प्रति एक नए, वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण को दर्शाता था। जहाँ पहले इसे लोग ‘पागलखाना’ कहकर सामाजिक कलंक और शर्म से जोड़ते थे, वहीं रिनपास ने इस धारणा को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इसने लोगों को समझाया कि मानसिक बीमारियाँ भी शारीरिक बीमारियों की तरह ही होती हैं और उनका इलाज संभव है।
आज की हकीकत: उम्मीद और उपचार का केंद्र
आज, रिनपास सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे पूर्वी भारत के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का सबसे बड़ा आधार है। यहाँ हर दिन ओपीडी में करीब 600 लोग इलाज कराने आते हैं, और 500 से अधिक मरीज भर्ती हैं। रिनपास के निदेशक डॉ. अमूल रंजन सिंह के अनुसार, ‘रिनपास की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने अपनी 100 साल की यात्रा में लाखों निराश लोगों में उम्मीद जगाई है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज अगर मनोरोग के प्रति लोगों की धारणाएं बदली हैं और ग्रंथियां दूर हुई हैं, तो उसमें रिनपास जैसे संस्थान की बहुत बड़ी भूमिका है।’
जिन लोगों ने जीवन के अलग-अलग संघर्षों में अपना संतुलन खो दिया था—चाहे वह किताबों का बोझ हो, नौकरी की नाकामी हो, अपनों का तिरस्कार हो, या प्रेम में असफलता हो—रिनपास ने उन्हें न सिर्फ इलाज दिया, बल्कि समाज में फिर से सम्मानजनक जीवन जीने का हौसला भी दिया। यहाँ से इलाज के बाद ठीक होने वाले लाखों मरीज आज एक नई जिंदगी शुरू कर चुके हैं।

भविष्य की ओर: मनोचिकित्सा का नया मानक
रिनपास का 100 साल का सफर यह दर्शाता है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ सिर्फ एक चिकित्सा सुविधा नहीं, बल्कि समाज के लिए एक आवश्यक मानवीय जरूरत हैं। यह संस्थान अब आधुनिक मनोचिकित्सा, काउंसलिंग और पुनर्वास के क्षेत्र में नए मानक स्थापित कर रहा है। इसने दिखा दिया है कि सही दृष्टिकोण और उचित उपचार से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता है।
यह राजनीतिक खबर इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे एक सरकारी संस्थान ने दशकों तक अपनी पहचान को बदलते हुए समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है। यह एक ऐसा उदाहरण है जो दिखाता है कि जब सरकारें और संस्थान अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से लेते हैं, तो वे आम जनता के जीवन में कितना बड़ा और सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। रिनपास का शताब्दी समारोह न केवल इसकी ऐतिहासिक यात्रा का जश्न है, बल्कि यह भविष्य के लिए एक प्रेरणा भी है कि मानसिक स्वास्थ्य को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए जितनी शारीरिक स्वास्थ्य को। यह हमारे समाज की बदलती प्राथमिकताओं और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता का एक मजबूत संकेत है।

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