
21वीं सदी का एक चौथाई हिस्सा बीत चुका है और आने वाले वर्षों में परिवर्तन की गति का अनुमान लगाना आसान नहीं है। यह तेज़ रफ़्तार बदलती दुनिया युवाओं की आकांक्षाओं को बढ़ा रही है, वहीं दूसरी ओर उनकी समस्याओं को जटिल कर रही है। सीखने के तरीके बदल रहे हैं, नया ज्ञान, नए कौशल और नवाचार हर दिशा में नए कार्य क्षेत्र खोल रहे हैं। यदि संभावनाएँ नई हैं तो यह स्पष्ट है कि समस्याएँ भी नई हैं और उनके समाधान भी नए ही खोजने होंगे। नवाचार में पिछड़ने वाला देश भविष्य में हर दृष्टि से पिछड़ जाएगा, यह चेतावनी आज स्पष्ट दिखाई दे रही है।
इस बीच, देश में शिक्षित युवाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इनमें से कुछ भाग्यशाली लोगों के लिए ‘ग्रीन कार्ड’ ने नई दुनिया के दरवाजे खोले हैं, जबकि उनके बाद वाले युवा ‘दो-तीन बीएचके और ईएमआई’ की दुनिया में खुद को व्यवस्थित करने में लगे हैं। हालांकि, अधिकांश युवा असहज हैं। उनके अंदर भविष्य के प्रति अनेक आशंकाएँ हैं और व्यवस्था पर बढ़ता अविश्वास उन्हें बेचैन कर रहा है।
प्रतियोगी परीक्षाओं में साख का संकट
युवाओं की इस बेचैनी का स्वाभाविक कारण भी है। हर स्तर पर प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करने वाली अधिकांश संस्थाएँ अपनी साख खो चुकी हैं। वर्षों की कठिन तैयारी के बाद भी शिक्षित युवा इस अनिश्चितता में जीते हैं कि कब पर्चा लीक हो जाए, कब नकल माफिया और सॉल्वर उनकी अपेक्षाओं पर पानी फेर दें। नियुक्तियों में ईमानदारी पर युवाओं का विश्वास डगमगा गया है। मंत्रियों और सेवा आयोगों के अध्यक्षों के घरों से करोड़ों की नकदी बरामदगी की घटनाएँ कुछ दिन चर्चा में रहती हैं और फिर अगली वैसी ही घटना होने तक सब शांत हो जाता है, जिससे युवाओं का व्यवस्था पर भरोसा टूटना लाज़मी है।
‘आउटसोर्सिंग’ और अस्थायी रोज़गार का बढ़ता दायरा
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा नियुक्तियों में ‘आउटसोर्सिंग’ प्रणाली अपनाकर उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं को जिस प्रकार के मानदेय पर अस्थायी नियुक्ति दी जा रही है, वह किसी को भी हताश और निराश कर सकती है। यह सवाल प्रासंगिक हो गया है कि क्या किसी विश्वविद्यालय या नीति आयोग से जुड़ी संस्था ने ‘आउटसोर्सिंग’ के बढ़ते दायरे पर कोई व्यापक सर्वेक्षण किया है? क्या उनके लिए नए कौशल सीखने और स्थायी रोज़गार के अवसर खोजने में सहायता देने की कोई ठोस योजना बनाई गई है? शिक्षा संस्थाएँ और कौशल सिखाने वाले संस्थान भी अपेक्षित तेजी से अपनी कार्यसंस्कृति बदल नहीं पा रहे हैं, जिससे युवाओं को बदलते बाज़ार के लिए तैयार करने में कमी आ रही है।
युवा वर्ग की अपेक्षाओं को समझना और इस तेज़ी से हो रहे बदलाव और नीतियों में सामंजस्य बनाए रखने के लिए जिस स्तर के संवाद की आवश्यकता है, वह दूर-दूर तक संभव दिखाई नहीं देती।
शिक्षा: सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर पहला कदम
इस समय सकारात्मक दृष्टिकोण की संभावना जहाँ-जहाँ ढूंढी जा सकती है, उसमें शिक्षा सबसे पहले आती है। शिक्षा ही हर क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर नीतियों में हो रहे परिवर्तन की ओर ध्यान आकर्षित करती है और युवाओं को नई दिशा दे सकती है। इस बीच, संसद को भी युवा वर्ग के संबंध में अपने उत्तरदायित्व की गहराई से परखना चाहिए।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की व्यावहारिक विफलता
वर्ष 1789 से 1799 तक चली फ्रांसीसी क्रांति ने ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ जैसे शब्दों को विश्वव्यापी स्वीकार्यता प्रदान की। भारत के संविधान में इसे हर प्रकार से सुदृढ़ करने के प्रावधान किए गए, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर हम केवल आंशिक रूप से ही सफल हो पाए हैं। नेता जाति समाप्त करने पर भाषण देते हैं, वादे करते हैं, लेकिन अधिकांश चुनाव जाति-वैविध्य के गणित पर ही लड़े जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वैशाली और लिच्छवी के गणतंत्रों का उदाहरण देने वाला भारत अपने व्यवहार में लोकतंत्र को केवल चुनाव-तंत्र तक सीमित कर रहा है।
आरक्षण के प्रावधान का लाभ जब तीसरी पीढ़ी तक उठा चुके परिवार आगे भी उसका लाभ उठाना प्रारंभ कर देते हैं, तब समाज का वह वंचित वर्ग अत्यंत कष्टकर मानसिक स्थिति से गुजरता है। यह स्थिति सामाजिक न्याय की भावना को ठेस पहुँचाती है।
गैर-बराबरी की गहरी जड़ें
बराबरी लाने का सबसे सशक्त मार्ग शिक्षा ही है, लेकिन भारत में प्रारंभ से ही हर विद्यार्थी जान जाता है कि वह दो में से किस वर्ग में है—सरकारी या निजी स्कूल में? देश में गैर-बराबरी की जड़ें जमाने में यह विभेद सबसे बड़ा योगदान दे रहा है। युवाओं और नई पीढ़ी में विश्वास और आशावादिता तभी जन्म लेगी, जब देश का राजनीतिक वातावरण पक्ष और विपक्ष के भेद को इस संदर्भ में भुलाकर साझी समरसता के लिए एकजुट हो जाए।
वर्तमान वातावरण में कुछ जाने-पहचाने तत्वों द्वारा जो तल्खी लगातार पैदा की जा रही है, वह उनके लिए ही नहीं, देश के लिए भी हानिकारक है। यह देश के युवाओं के भविष्य को भूलकर राजनीतिक हानि-लाभ को प्राथमिकता देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल के युवाओं के आंदोलनों का उल्लेख कर देश में वहाँ जैसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करने वाले न तो युवाओं के हितैषी हो सकते हैं, न ही भारत के।
भारतीयता के दर्शन की ओर लौटना
शिक्षा के समक्ष इस समय भारत को जानने और समझने के लिए स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, रवींद्रनाथ टैगोर की ‘भारत, भारतीयता, उसकी विविधता और दर्शन’ का अध्ययन हर अध्यापक और युवा के लिए आवश्यक है। इसकी पूर्णता के लिए आज के परिप्रेक्ष्य में गांधी को जानना भी युवाओं के लिए ही नहीं, राजनीतिक दलों के लिए भी हितकर होगा। संभवतः यह उनमें से कुछ को राजनीति में चरित्र और निर्मलता की शक्ति से उनका परिचय करा सके। इससे भारत की सामाजिकता और संस्कृति की सार्वभौमिकता को समझने में मदद मिलेगी।
युवाओं की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए, सरकार, शिक्षण संस्थानों और राजनीतिक दलों को विश्वास बहाली, रोज़गार सुरक्षा और सामाजिक समानता की दिशा में तत्काल, ईमानदार और व्यापक प्रयास करने होंगे।

नेता और नेतागिरि से जुड़ी खबरों को लिखने का एक दशक से अधिक का अनुभव है। गांव-गिरांव की छोटी से छोटी खबर के साथ-साथ देश की बड़ी राजनीतिक खबर पर पैनी नजर रखने का शौक है। अखबार के बाद डिडिटल मीडिया का अनुभव और अधिक रास आ रहा है। यहां लोगों के दर्द के साथ अपने दिल की बात लिखने में मजा आता है। आपके हर सुझाव का हमेशा आकांक्षी…



