
आज जब हम अमेरिका के टैरिफ वार से परेशान हैं, तो हमें उन बुरे दिनों को याद करना चाहिए जब दुनिया ने खुद को बचाने के लिए दरवाजे बंद कर लिए थे। कोरोना महामारी के शुरुआती दिनों में अमेरिका जैसे विकसित देशों ने अपनी सीमाओं को सील कर दिया था ताकि दवाएं और टीके अपने नागरिकों के लिए आरक्षित किए जा सकें। यह वही अमेरिका था, जो कभी “ग्लोबल विलेज” का नारा देता था, लेकिन उस नारे की हकीकत कोविड-19 ने उजागर कर दी। उनके लिए ‘ग्लोबल विलेज’ का मतलब दुनिया के बाजारों पर अपना कब्जा बनाए रखना था, न कि पूरे विश्व का भला करना।

कोविड-19 के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने पहले तो इस वायरस का मज़ाक उड़ाया, लेकिन जब हालात बिगड़े तो इसे ‘चीनी महामारी’ बताकर पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने हर अमेरिकी के लिए चार अतिरिक्त टीके के डोज सुरक्षित करने का आदेश दिया, जबकि दुनिया के गरीब देशों को उनकी मदद का इंतज़ार था। अमेरिका का यह व्यवहार उसकी स्वार्थी पूंजीवादी सोच का प्रमाण था। उन दिनों भारत समेत तमाम देशों में यह बहस छिड़ी थी कि हमें आत्मनिर्भर बनना होगा ताकि ऐसी स्थिति दोबारा न आए। हालांकि, शुरुआती जोश के बाद हम फिर से पुराने ढर्रे पर लौट गए।
लघु उद्योगों को बढ़ावा देना क्यों जरूरी है?
कोविड के दौरान कई युवाओं ने अपनी नौकरी गंवाने के बाद अपने गांवों और कस्बों में छोटे-मोटे काम शुरू किए। इनमें से कुछ ने इसे जारी रखा और अपने साथ-साथ अपने क्षेत्र का भी भला कर रहे हैं, लेकिन ऐसे लोग अपवाद हैं। सरकारों ने भी “हॉकी स्टिक रिकवरी” से खुश होकर ‘एक जिला एक उत्पाद’ जैसी बेहतरीन योजनाओं पर ध्यान देना कम कर दिया। अगर उस समय की जन-संघर्षशीलता और सरकारी भागीदारी जारी रहती, तो आज हम आत्मनिर्भरता की राह में बहुत आगे होते।

अमेरिका से व्यापार समझौता हो जाएगा, क्योंकि व्यापार हमेशा आपसी साझेदारी पर आधारित होता है। इसमें एकतरफा फैसलों की गुंजाइश नहीं होती। लेकिन हमें अपनी नीतियों, विशाल युवा आबादी और लोगों की आकांक्षाओं में तालमेल बिठाना होगा।
भारत को अब कृषि के साथ-साथ ‘लघु उद्योग क्रांति’ पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो हमें सही मायने में आत्मनिर्भर बना सकता है। लघु उद्योग सर्वाधिक रोजगार पैदा करते हैं और इनके उत्पादों की खपत घरेलू बाजारों में आसानी से हो सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि हमें बड़ी भारतीय कंपनियों को नजरअंदाज कर देना चाहिए। जिन कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है, उन्हें अपना सफर जारी रखना चाहिए। हमें अन्य देशों के साथ भी व्यापार समझौते करने होंगे, जैसा कि हमने हाल ही में इंग्लैंड के साथ किया है।
अमेरिका की असली चिंता: चीन और रूस
हमें यह भी समझना होगा कि अमेरिका की असली चिंता हम नहीं, बल्कि चीन और रूस हैं। मॉस्को और बीजिंग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। यही वजह है कि हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक गुप्त, लेकिन भावपूर्ण पत्र लिखा, जो चीन के रुख में बदलाव का संकेत देता है।
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजिंग में हैं, तो यह कूटनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण कदम है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी की हाल की दिल्ली यात्रा भी इसका संकेत है। बीजिंग से निकला कोई भी साझा संदेश बहु-ध्रुवीय दुनिया के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकता है। जापान में भी मोदी ने कई लाभकारी समझौते किए हैं। ये सभी प्रयास तभी सफल होंगे, जब हम लगातार खुद को मजबूत करते रहेंगे। आज अमेरिका हमसे इस तरह का व्यवहार सिर्फ इसलिए कर रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि वह हमारे बिना भी काम चला सकता है।
भारत और चीन की तुलना: एक नजर
अक्सर लोग चीन की तुलना भारत से करके हमें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि चीन में एक दिखावटी गणतंत्र है, जबकि भारत सही मायने में एक संघीय और लोकतांत्रिक देश है। हमारे देश में हर कोई स्वतंत्र रूप से अपनी राय रख सकता है, जैसा कि यह मौजूदा लेख साबित करता है।
इसके बावजूद, हमने जो प्रगति की है, वह तमाम ताकतों के लिए जलन का विषय है। अगर चीन अपने पुराने पश्चिमी शासकों से आगे निकल सकता है, तो हम भी कभी अपने शासक रहे इंग्लैंड से आगे निकल चुके हैं। क्या यह हमारे लिए एक मजबूत प्रेरणा नहीं है? हमें इन अनुभवों से सीखना चाहिए और एक नई ‘लघु उद्योग क्रांति’ के जरिए खुद को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

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