
हिन्दी साहित्य में कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी कलम हंसाते-हंसाते चुपचाप समाज की धड़कन पर उंगली रख देती है। ऐसे ही एक अमिट हस्ताक्षर हैं शरद जोशी, जिनकी व्यंग्यात्मक लेखनी ने हिन्दी साहित्य को एक नया तेवर, नई दिशा और नई चेतना दी। वे न सिर्फ एक व्यंग्यकार थे, बल्कि हास्य के जादूगर भी थे, जिन्होंने हंसी की परतों में समाज और सत्ता की सच्चाई को उकेरा।
उज्जैन से निकला व्यंग्य का सूरज
21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में जन्मे शरद जोशी ने बहुत जल्दी यह पहचान लिया था कि हास्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि गंभीर संवाद का प्रभावी उपकरण हो सकता है। उन्होंने अपने लेखन में समाज की विडंबनाओं, नौकरशाही की उलझनों, और आम आदमी की असहायता को जिस शैली में प्रस्तुत किया, वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय में थी।
उनकी भाषा में एक सहजता थी, जो सीधे पाठक के दिल में उतर जाती थी। ‘राग भोपाली’, ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘परिक्रमा’, जैसी कृतियों में उनका व्यंग्य कभी कठोर आलोचना नहीं बनता, बल्कि आईना बनकर सामने आता है, जिसमें पाठक खुद को, अपने समाज को, और व्यवस्था को देखता है – और सोचने पर मजबूर होता है।
व्यंग्य जो सिर्फ हंसाता नहीं, जगाता है
शरद जोशी का व्यंग्य सिर पर वार नहीं करता, बल्कि मन को कुरेदता है। उनकी लेखनी का जादू यही था कि वह बिना शोर मचाए, बिना किसी को लज्जित किए, गहरी चोट कर देती थी। ‘प्रतिदिन’ जैसे उनके स्तंभों में उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को इस तरह चित्रित किया कि पाठक हंसते-हंसते आत्ममंथन करने लगता।
उनकी लेखनी की एक बड़ी खासियत थी – संतुलन। उन्होंने कभी व्यंग्य को कटु आलोचना बनने नहीं दिया और न ही हास्य को फूहड़ता में ढलने दिया। यही कारण है कि उनका व्यंग्य आज भी शालीन, मारक और सार्थक बना हुआ है।
साहित्य से टीवी तक : हर मंच पर छाए
शरद जोशी की प्रतिभा केवल साहित्य तक सीमित नहीं रही। वे एक कुशल नाटककार, पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। उन्होंने अपने विचारों और व्यंग्य को रेडियो और टेलीविजन जैसे माध्यमों के ज़रिए भी जनमानस तक पहुंचाया।
दूरदर्शन पर प्रसारित ‘ये जो है ज़िंदगी’, ‘वागले की दुनिया’ और ‘उड़ान’ जैसे धारावाहिकों की पटकथा ने उन्हें घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। उनकी लेखनी ने इन धारावाहिकों में आम आदमी की समस्याओं को हास्य और संवेदना के साथ प्रस्तुत किया। वे जानते थे कि माध्यम कोई भी हो, अगर बात सच्ची है और अंदाज़ असरदार, तो जनता तक ज़रूर पहुंचेगी।

विचारों की विरासत
शरद जोशी का निधन 5 सितंबर 1991 को हुआ, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी जीवित हैं। उनकी शैली, उनके विचार, उनकी चुटीली भाषा, और उनका समाज को समझने का तरीका आज के लेखकों और पाठकों दोनों के लिए प्रेरणा है।
वह मानते थे कि लेखक का काम केवल लिखना नहीं, बल्कि समाज को रास्ता दिखाना भी है। और उन्होंने अपने जीवन में यह काम बखूबी किया।
आज जब व्यंग्य अक्सर व्यक्तिगत कटाक्ष या सतही मनोरंजन में सिमट रहा है, तब शरद जोशी का लेखन एक आदर्श की तरह सामने खड़ा है। उनका साहित्य यह सिखाता है कि हास्य में गंभीरता कैसे छिपाई जा सकती है, और व्यंग्य में संवेदना कैसे जिंदा रखी जा सकती है।
शरद जोशी हिन्दी व्यंग्य साहित्य के शिखर पुरुष हैं। उन्होंने न केवल एक विधा को नई ऊंचाई दी, बल्कि हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज की आत्मा को टटोला। उनकी लेखनी में वह ताकत थी, जो सत्ता से सवाल कर सकती थी, और आम आदमी को अपनी स्थिति पर सोचने के लिए प्रेरित कर सकती थी।
आज भी जब हम उन्हें पढ़ते हैं, तो सिर्फ हंसते नहीं, चौंकते हैं, रुकते हैं और सोचते हैं। यही है शरद जोशी की अमरता – व्यंग्य के उस शिल्पकार की, जिसने हमें हंसाते हुए हमारी आंखें खोल दीं।

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