
बिहार इन दिनों राजनीति और जनचर्चा का बड़ा मुद्दा बना हुआ है। एक ओर विपक्षी दल राजद और कांग्रेस सत्तारूढ़ राजग सरकार पर पिछड़ेपन का ठीकरा फोड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सत्ता पक्ष यह साबित करने में जुटा है कि विकास का असली दौर पिछले डेढ़-दो दशकों में ही शुरू हुआ है। गहराई से पड़ताल करने पर यह साफ हो जाता है कि बिहार की बदहाली की जड़ें काफी पुरानी हैं और इसमें कांग्रेस व राजद जैसी पार्टियों की नीतियों और कार्यशैली का बड़ा हाथ रहा है।
स्वतंत्रता के बाद केंद्र की उपेक्षा
आज़ादी के बाद बिहार की अर्थव्यवस्था मजबूत आधार पर खड़ी हो सकती थी। अविभाजित बिहार देश के करीब 40 प्रतिशत खनिज संसाधनों से समृद्ध था। टाटा जैसे बड़े औद्योगिक घरानों ने यहां निवेश कर कारखाने लगाए। उत्तर बिहार की उपजाऊ मिट्टी को जापान की धरती जैसी बताया जाता रहा है। इसके बावजूद केंद्र सरकारों ने इन संसाधनों का उपयोग कर राज्य को प्रगति की राह पर ले जाने में उदासीनता दिखाई। न तो सिंचाई और बांध की परियोजनाओं पर गंभीर काम हुआ और न ही खनिज आधारित उद्योगों का विस्तार किया गया।
रेल भाड़ा समानीकरण : बिहार के लिए घाटे का सौदा
1950 के दशक में कांग्रेस सरकार ने रेल भाड़ा समानीकरण का नियम लागू किया। इसके तहत धनबाद से पटना और धनबाद से मुंबई या चेन्नई तक खनिज पहुंचाने का भाड़ा बराबर कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि उद्योगपति खनिज संपन्न बिहार आने के बजाय सीधे तटीय राज्यों में ही निवेश करने लगे। यह नीति बिहार के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी। अनुमान है कि 1950 से 1990 तक इस नीति के कारण बिहार को करीब 10 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। यह राशि राज्य की तकदीर बदल सकती थी।

पंजाब को मिली तरजीह, बिहार हुआ उपेक्षित
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ध्यान पंजाब पर केंद्रित रहा। 1955 में सिंचाई के लिए पूरे देश में 29,106 लाख रुपये का आवंटन हुआ, जिसमें से अकेले पंजाब को 10,952 लाख रुपये मिले। वहीं, कोसी बांध जैसी योजनाओं के लिए बिहार को कहा गया कि स्वयंसेवी संगठन और जनता सहयोग दें। यह दृष्टिकोण बिहार की उपेक्षा का स्पष्ट उदाहरण था।
केंद्रीय सहायता में भारी असमानता
रिजर्व बैंक के आंकड़े भी बिहार के साथ भेदभाव की गवाही देते हैं। 1993-94 में जम्मू-कश्मीर को प्रति व्यक्ति 2,291 रुपये की केंद्रीय सहायता मिली, जबकि बिहार को मात्र 192 रुपये। तमिलनाडु को 233, राजस्थान को 304 और उत्तर प्रदेश को 331 रुपये मिले। पहली पंचवर्षीय योजना से ही बिहार की उपेक्षा की यह प्रवृत्ति जारी रही।

गरीबी के बोझ तले दबा राज्य
नतीजा यह हुआ कि 1971 में ओडिशा को छोड़कर बिहार देश का सबसे गरीब राज्य बना। स्थिति आज भी लगभग वैसी ही है। कुछ सरकारी उपक्रम स्थापित हुए, लेकिन वे भी सफल नहीं हो पाए। अगर कृषि और सिंचाई में निवेश होता तो तस्वीर अलग हो सकती थी।
लालू-राबड़ी राज : विकास की रफ्तार थमी
बिहार की दुर्दशा में 15 साल के लालू-राबड़ी राज का योगदान भी अहम माना जाता है। इस दौरान भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था की बदहाली और प्रशासनिक शिथिलता ने राज्य की छवि को गहरी चोट पहुंचाई। उद्योग और निवेश पूरी तरह ठप हो गए। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में स्थिति बिगड़ती गई। आज भी बिहार की जनता उस दौर को याद कर सिहर उठती है।
एनडीए शासनकाल : विकास की नई शुरुआत
2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार आई। उसके बाद राज्य में सुशासन और विकास की नई इबारत लिखी जाने लगी। बिजली, सड़क और शिक्षा पर जोर दिया गया। गांव-गांव तक बिजली पहुंची, सड़कों का जाल बिछा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हुआ।
आंकड़े बताते हैं कि 2005-06 में बिहार का बजट 26,328 करोड़ रुपये था, जो 2025-26 में बढ़कर 3,16,895 करोड़ रुपये हो गया। इस बढ़ोतरी से साफ है कि राज्य की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ी।
केंद्र से सहयोग और विशेष पैकेज
2014 में केंद्र में भी एनडीए सरकार बनने के बाद बिहार को विशेष केंद्रीय सहायता सुगमता से मिलने लगी। केंद्र और राज्य सरकार के साझा प्रयासों से विकास परियोजनाओं को गति मिली। बिजलीकरण, सड़क निर्माण, शिक्षा, कौशल विकास और स्वास्थ्य योजनाओं ने आम जनता तक असर डाला। पलायन में कुछ कमी आई और रोजगार के अवसर बढ़े।
राजनीतिक समीकरण और मतदाताओं की सोच
आगामी विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में देखा जाए तो मतदाताओं के बीच विकास बड़ा मुद्दा बना हुआ है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार में एनडीए को भारी सफलता मिली। नवंबर 2024 में हुए चार विधानसभा उपचुनावों में सभी सीटें एनडीए के खाते में गईं, जिनमें से तीन सीटें पहले राजद-माले के पास थीं। यह जीत विपक्षी दलों के लिए बड़ा झटका साबित हुई।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लालू-राबड़ी राज की यादें अभी भी मतदाताओं के मन में ताजा हैं। लोग उस दौर को वापस नहीं देखना चाहते। हालांकि, राजद का एमवाइ (मुस्लिम-यादव) समीकरण अब भी मजबूत है। मुस्लिम मतदाता उसके साथ मजबूती से जुड़े हैं, लेकिन यादव समुदाय का एक हिस्सा पहले जैसा उत्साह नहीं दिखा रहा।
कांग्रेस और महागठबंधन की स्थिति
महागठबंधन में शामिल कांग्रेस नेतृत्वहीनता और निष्क्रियता से जूझ रही है। वह पूरी तरह राजद पर निर्भर है। भाकपा-माले का सहयोग महागठबंधन को कुछ मजबूती देता है, लेकिन यह उतना निर्णायक साबित नहीं हो पा रहा। वहीं, छोटे क्षेत्रीय दल और निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी समीकरण को किस हद तक प्रभावित करेंगे, यह देखना बाकी है।

धनबल और प्रवर्तन एजेंसियों की भूमिका
इस बार का विधानसभा चुनाव धनबल के असर के लिए भी चर्चा में है। विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव प्रचार और मतदाताओं को प्रभावित करने में धन की भूमिका पहले से कहीं ज्यादा होगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रवर्तन एजेंसियां इस पर कितना अंकुश लगा पाती हैं।
जनता की उम्मीदें और भविष्य की राह
आज बिहार की जनता विकास को लेकर सजग और संवेदनशील हो चुकी है। वे केवल जाति या धर्म के आधार पर वोट देने से परहेज कर रहे हैं। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और बिजली जैसे मुद्दे उनकी प्राथमिकता हैं। जनता चाहती है कि राज्य उस उपेक्षा की भरपाई कर पाए, जो उसे आज़ादी के बाद से मिली।
बिहार की बदहाली का इतिहास कांग्रेस और राजद की नीतियों और उपेक्षा से गहराई से जुड़ा है। आजादी के बाद से केंद्र की नीतियों, विशेषकर रेल भाड़ा समानीकरण जैसी व्यवस्थाओं ने बिहार की प्रगति को रोक दिया। लालू-राबड़ी काल में विकास पूरी तरह ठहर गया। हालांकि 2005 के बाद से राज्य ने विकास की राह पकड़ ली है और केंद्र के सहयोग से अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं। फिर भी बिहार आज भी अपने अतीत की भरपाई के लिए संघर्षरत है।
आगामी चुनावों में मतदाता यह तय करेंगे कि वे सुशासन और विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहते हैं या फिर पुराने हालात की वापसी। इतना तय है कि इस बार चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा विकास ही होगा।

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