
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने हाल ही में अपने एक बयान से देश की राजनीतिक बहस में एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। उन्होंने कहा है कि अगर ‘इंडिया’ गठबंधन एकजुट होकर सही रणनीति अपनाए तो भाजपा को चुनाव में आसानी से हराया जा सकता है। अय्यर ने इस दावे के पीछे एक दिलचस्प आँकड़ा पेश किया: 2014 से 2024 तक के लोकसभा चुनावों में भाजपा को डाले गए कुल वोटों का सिर्फ एक-तिहाई हिस्सा ही मिला, जबकि दो-तिहाई भारतीयों ने उसे नकार दिया। यह बयान ऐसे समय में आया है जब ‘इंडिया’ गठबंधन की एकजुटता को लेकर सवाल उठ रहे हैं। अय्यर का यह तर्क ‘लोकतंत्र की गिरावट’ और ‘बहुसंख्यकवाद की राजनीति’ के खिलाफ एक नई रणनीति पेश करता है।
‘एक-तिहाई’ का तर्क और उसका महत्व
अय्यर का यह विश्लेषण बेहद महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि 2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में, भले ही भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला हो, लेकिन उसने कभी भी देश के दो-तिहाई मतदाताओं का समर्थन हासिल नहीं किया। यह आँकड़ा इस बात पर जोर देता है कि भाजपा की सफलता का कारण उसके खुद के वोट नहीं, बल्कि विपक्ष के वोट बैंक का बिखराव है। यानी, अगर गैर-भाजपा पार्टियाँ एकजुट हो जाती हैं और वोट बँटवारा रोक पाती हैं, तो चुनावी गणित पूरी तरह से पलट सकता है।
यह तर्क भाजपा की हिंदुत्व-आधारित राजनीति पर भी सवाल उठाता है। अय्यर के अनुसार, अगर भाजपा को केवल एक-तिहाई वोट मिले हैं, तो इसका मतलब है कि बहुसंख्यक हिंदुओं ने हिंदुत्व की राजनीति को अपने धर्म या जीवनशैली से नहीं जोड़ा है। यह ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए एक बड़ी उम्मीद की किरण है, क्योंकि यह दर्शाता है कि एक धर्मनिरपेक्ष और समावेशी एजेंडा अभी भी देश के बड़े हिस्से को प्रभावित कर सकता है।
‘इंडिया’ गठबंधन की चुनौतियाँ और संभावनाएँ
मणिशंकर अय्यर ने माना है कि ‘इंडिया’ गठबंधन में कई आंतरिक मतभेद हैं। ये मतभेद ही पिछले तीन चुनावों में गैर-भाजपा वोटों के बँटवारे का कारण बने हैं। कई क्षेत्रीय दल अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं, जिससे भाजपा को सीधा फायदा मिला है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस-वाम मोर्चा के बीच की प्रतिद्वंदिता या केरल में कांग्रेस और वाम मोर्चा का आपस में लड़ना। इन आंतरिक खींचतानों को सुलझाना ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
अय्यर के बयान से यह भी संकेत मिलता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन को न सिर्फ आपसी मतभेद सुलझाने होंगे, बल्कि एक साझा और मजबूत रणनीति भी बनानी होगी। यह रणनीति सिर्फ भाजपा का विरोध करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि जनता के सामने एक सकारात्मक और वैकल्पिक दृष्टि पेश करनी चाहिए। अगर गठबंधन के नेता एक-दूसरे के प्रति भरोसे का माहौल बना पाते हैं और चुनावी क्षेत्रों में सीट-साझाकरण का एक प्रभावी मॉडल लागू कर पाते हैं, तो उनके पास भाजपा के ‘एक-तिहाई’ वोट बैंक को मात देने का एक ठोस मौका है।

भाजपा के अंदरूनी दरारें और विपक्ष का मौका
मणिशंकर अय्यर ने अपने बयान में एक और महत्वपूर्ण दावा किया है। उनका मानना है कि भाजपा और उससे जुड़े संगठनों के अंदर भी अब दरारें उभरने लगी हैं। यह एक ऐसा पहलू है जिस पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता। भाजपा में अलग-अलग गुटों के बीच सत्ता संघर्ष और असहमति के मामले सामने आते रहे हैं। विपक्ष इन दरारों का फायदा उठा सकता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब कोई पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रहती है, तो उसमें स्वाभाविक रूप से असंतोष पैदा होने लगता है। अगर विपक्ष इस असंतोष को भुनाने में कामयाब होता है और भाजपा के अंदरूनी कलह को उजागर करता है, तो वह भाजपा के मजबूत गढ़ों में भी सेंध लगा सकता है। अय्यर का यह बयान विपक्ष के लिए एक तरह से ‘रोडमैप’ जैसा है, जिसमें वह न सिर्फ भाजपा की कमजोरियों को उजागर कर रहा है, बल्कि विपक्ष को अपनी रणनीति भी बता रहा है।
लोकतंत्र की ‘गिरावट’ और चुनावी राजनीति
अय्यर ने अपनी बात को पत्रकार प्रेम शंकर झा की किताब ‘द डिसमेंटलिंग ऑफ इंडिया’स डेमोक्रेसी’ के विमोचन के मौके पर रखा। यह संदर्भ उनके बयान को और भी गहरा अर्थ देता है। उनका मानना है कि भारत में लोकतंत्र का स्तर तेजी से गिर रहा है और इसे चुनावी राजनीति के सही उपयोग से रोका जा सकता है। यह विचार इस बात पर जोर देता है कि चुनाव सिर्फ सत्ता पाने का माध्यम नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र को बचाने और मजबूत करने का एक साधन भी हैं।
अय्यर का यह विश्लेषण एक ऐसे समय में आया है जब राजनीतिक विश्लेषक और मतदाता दोनों ही ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य को लेकर आशंकित हैं। उनके बयान ने एक नया नजरिया पेश किया है, जिसमें हार के बजाय जीत की संभावनाएँ तलाशी गई हैं। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन इस ‘दो-तिहाई’ के फॉर्मूले को सही से समझकर और लागू कर पाता है, तो 2029 के चुनावों में देश की राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह से बदल सकती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ‘इंडिया’ के नेता इस संदेश को गंभीरता से लेते हैं और अपनी आंतरिक राजनीति को दरकिनार कर एक साझा लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं।

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