
नेपाल में ‘जनरेशन Z’ (Gen Z) के नेतृत्व में चल रहे एक अभूतपूर्व युवा आंदोलन ने देश की सरकार का तख्तापलट कर दिया है। यह आंदोलन तब जोर पकड़ा जब सरकार ने सोशल मीडिया से जुड़े कुछ ऐप्स और वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया। शुरुआत में शांतिपूर्ण रहा यह विरोध प्रदर्शन सरकार द्वारा प्रदर्शनकारियों पर सख्ती के बाद हिंसक हो उठा। हिंसा की यह आग ऐसी भड़की कि प्रधानमंत्री सहित कई मंत्रियों को न केवल अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा, बल्कि उन्हें अपनी जान बचाने के लिए वहां से भागना भी पड़ा।
इस घटना ने एक ऐसे देश में, जो दशकों की राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा था, एक नया संकट पैदा कर दिया है। फिलहाल देश में कोई निर्वाचित सरकार नहीं है, और सेना ने सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाली हुई है। इस पूरी घटना ने दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों को एक बड़ा सबक दिया है।
‘जनरेशन Z’ का सोशल मीडिया से शुरू हुआ आंदोलन
यह पूरा घटनाक्रम सरकार द्वारा इंटरनेट मीडिया कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले से शुरू हुआ। सरकार का तर्क था कि इन कंपनियों ने देश के स्वायत्त ढांचे और संप्रभुता को नहीं माना, जिससे सरकार को सख्त कदम उठाना पड़ा। हालांकि, यह कदम अभिव्यक्ति और विचारों की आजादी पर एक बड़ा प्रहार माना गया। सरकार की मंशा स्पष्ट रूप से इंटरनेट मीडिया पर चल रहे आंदोलन को कमजोर करना था।

यह कार्रवाई ऐसे समय में हुई जब इंटरनेट मीडिया देश के युवाओं के लिए न केवल संवाद का, बल्कि आमदनी का भी एक प्रमुख जरिया बन चुका है। अचानक लगाए गए इस प्रतिबंध से स्कूल-कॉलेज जाने वाली पीढ़ी में भारी आक्रोश फैल गया। एक विरोध-प्रदर्शन, जिसे शांतिपूर्वक होना था, सुरक्षा बलों द्वारा पूरी ताकत से कुचले जाने के बाद उग्र हो गया, और उसके बाद जो हिंसा फैली, वह अभी तक शांत नहीं हुई है।
‘नेपो किड्स’ और भ्रष्टाचार: आंदोलन की जड़ें गहरी
हालांकि, इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध इस आक्रोश का एकमात्र कारण नहीं था। इस आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। पिछले महीने ही इंटरनेट मीडिया पर ‘नेपो किड्स’ यानी राजनीति और व्यापार में भाई-भतीजावाद के खिलाफ एक खुला आंदोलन शुरू हुआ था। नेपाल की जेन Z पीढ़ी ने राजनेताओं, पूर्व प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों के बच्चों की आलीशान जीवनशैली को निशाना बनाया। आमदनी से अधिक आय और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी उनके निशाने पर थे, जिससे सरकार पर दबाव बढ़ रहा था।
जनता भ्रष्टाचार से भी त्रस्त थी। राजनीतिक नेताओं के गठजोड़ और अपने स्वार्थों के लिए लगातार सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति ने आम लोगों का धैर्य तोड़ दिया था। यह सोशल मीडिया पर चल रहा गुस्सा दशकों से पनप रहे जन-असंतोष का ही परिणाम था।

बातचीत से इनकार और तानाशाही रवैये का आरोप
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पर पहले से ही ‘तानाशाही’ तरीके से सरकार चलाने के आरोप लगते रहे थे। इस स्थिति में अगर उन्होंने बातचीत का रास्ता अपनाया होता तो शायद मामला शांत हो सकता था। लेकिन इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाकर उन्होंने अभिव्यक्ति और विचारों की आजादी पर सीधा प्रहार किया, जिसने आक्रोश को और बढ़ा दिया। दो दिनों से भी कम समय में नेपाल में एक विचित्र राजनीतिक शून्य पैदा हो गया। फिलहाल सेना ने देश की सुरक्षा की कमान संभाली है, लेकिन सरकार चलाने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि बांग्लादेश की तर्ज पर नेपाल में भी एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी और उसमें युवाओं को भी प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। संभावित सरकार की कमान संभालने के लिए कुछ नामों पर चर्चा भी चल रही है।
आंदोलनों की लंबी विरासत, पर यह आंदोलन क्यों अलग?
नेपाल में आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है। चाहे वह 1990 का आंदोलन हो, जब राजनीतिक दलों ने राजशाही से उन पर लगे प्रतिबंध हटाने की मांग की थी, या 2006 का जनांदोलन, जिसके चलते नेपाल में राजशाही हटी और पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना हुई। लेकिन यह पहला अवसर है जब 14 से 25 वर्ष की आयु वर्ग के युवाओं के नेतृत्व में ऐसा कोई आंदोलन हुआ है।
पिछला जनांदोलन राजनीतिक दलों द्वारा चलाया गया था, लेकिन इस बार का आंदोलन पूरी तरह से युवाओं द्वारा संचालित है, जो किसी भी स्थापित राजनीतिक दल या नेता से सीधे तौर पर जुड़ा नहीं है। यह इसकी सबसे बड़ी विशेषता है, जो इसे नेपाल के राजनीतिक इतिहास में एक मील का पत्थर बनाती है।
दशकों की राजनीतिक अस्थिरता और जन-असंतोष
नेपाल में सदियों पुरानी राजशाही व्यवस्था के खिलाफ चले दस वर्षों के लंबे आंदोलन के बाद 2006 में लोकतंत्र का बिगुल बजा और 2008 में पहला लोकतांत्रिक चुनाव हुआ। लेकिन जिस भरोसे के साथ माओवादी सरकार को पूर्ण समर्थन मिला, वह उस पर खरी न उतर सकी। पहले प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड को साल भर के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा था। तब से लेकर आज तक नेपाल में एक दर्जन से भी अधिक प्रधानमंत्री बन चुके हैं, लेकिन कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया।
साथ ही जिस तरह से एमाले पार्टी के केपी शर्मा ओली, माओवादी नेता प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा ने गठजोड़ के जरिए किसी भी स्थिति में सत्ता से चिपके रहने को तरजीह दी, उसने राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ा दिया।
नीतियों की विफलता और बड़े पैमाने पर पलायन
लगातार राजनीतिक अस्थिरता का नीतियों पर भी व्यापक असर पड़ा, जिससे विदेश नीति भी अछूती नहीं रही। किसी सरकार ने ‘इंडिया-कार्ड’ का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने ‘चाइना-कार्ड’ का। देश में रोजगार के अवसरों की कमी से लेकर अच्छे शिक्षण संस्थानों का अभाव भी लोगों को अखर रहा था। ऊपर से उपलब्ध ढांचे का राजनीतिकरण, दुरुपयोग और भ्रष्टाचार देखकर उनका धैर्य जवाब देता गया। इसके चलते ही बेहतर अवसरों की तलाश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा देश छोड़कर पलायन कर गया।
प्राकृतिक संपदा से संपन्न और पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला देश अपने समक्ष उपलब्ध अवसरों का लाभ नहीं उठा पाया। राजनीतिक दलों और सरकारों के विरुद्ध भावनाएं उबाल ले रही थीं और अब उसका ही प्रकटीकरण हो रहा है।

अराजक तत्वों की भागीदारी और देश एक चौराहे पर
जैसी तस्वीरें इस समय नेपाल से आ रही हैं, उन्हें देखकर यह मानने के अच्छे-खासे कारण हैं कि विरोध-प्रदर्शन में कुछ अराजक तत्व भी शामिल हो गए हैं। देशभर में आगजनी, सार्वजनिक-निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और लूटपाट की खबरें आ रही हैं।
इस समय नेपाल एक बड़े चौराहे पर खड़ा है। एक रास्ता नए लोकतांत्रिक ढांचे का अवसर तैयार करने वाला है, जिसमें यदि युवाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिलता है तो देश एक नई दिशा में बढ़ सकता है। दूसरा रास्ता यह है कि यदि इस अवसर को गंवाया जाता है तो राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता बढ़ती जाएगी।
नेपाल का घटनाक्रम, दुनिया के लिए एक सबक
यह घटनाक्रम अन्य देशों के लिए भी एक बड़ा सबक है कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर खरा उतरना और जनता के मुद्दों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण होता है। जन आकांक्षाओं की उपेक्षा के परिणाम नेपाल से पहले श्रीलंका और बांग्लादेश में भी देखने को मिल चुके हैं, जहां राजनीतिक अस्थिरता ने आर्थिक और सामाजिक संकट को जन्म दिया। यह दिखाता है कि जनता की आवाज को दबाने की कोशिशें अक्सर विस्फोटक नतीजे लेकर आती हैं।

नेता और नेतागिरि से जुड़ी खबरों को लिखने का एक दशक से अधिक का अनुभव है। गांव-गिरांव की छोटी से छोटी खबर के साथ-साथ देश की बड़ी राजनीतिक खबर पर पैनी नजर रखने का शौक है। अखबार के बाद डिडिटल मीडिया का अनुभव और अधिक रास आ रहा है। यहां लोगों के दर्द के साथ अपने दिल की बात लिखने में मजा आता है। आपके हर सुझाव का हमेशा आकांक्षी…



