
भारतीय राजनीति में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो समय के साथ धुंधले नहीं पड़ते, बल्कि उनकी छवि और योगदान और अधिक स्पष्ट होते जाते हैं। जसवंत सिंह ऐसा ही एक नाम हैं—एक ऐसा नेता जिन्होंने सेना की वर्दी से लेकर संसद के गलियारों तक अपनी पहचान बनाई। अटल बिहारी वाजपेयी के ‘हनुमान’ कहे जाने वाले जसवंत सिंह का जीवन साहस, स्वाभिमान और सिद्धांतों की मिसाल रहा।
सेना से राजनीति तक का सफर
3 जनवरी 1938 को राजस्थान के बाड़मेर जिले के जसोल गांव में जन्मे जसवंत सिंह का बचपन अनुशासन और देशभक्ति की सीख के साथ बीता। उन्होंने भारतीय सेना में आर्टिलरी रेजिमेंट में मेजर के पद तक सेवा दी। 1960 के दशक में सेना से इस्तीफा देकर उन्होंने राजनीति की राह चुनी और जनसंघ से जुड़ गए, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी में परिवर्तित हुआ।
संसदीय जीवन की शुरुआत और वाजपेयी युग
1980 में राज्यसभा सदस्य चुने जाने के बाद उनका संसदीय सफर शुरू हुआ, जो 2014 तक चला। वे पांच बार लोकसभा सदस्य भी रहे। उनकी असली पहचान वाजपेयी सरकार के दौरान बनी, जब उन्होंने विदेश, रक्षा और वित्त जैसे तीन प्रमुख मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। 1996 में 13 दिनों की एनडीए सरकार में वे वित्त मंत्री बने और फिर 1998 से 2002 तक विदेश मंत्री के रूप में भारत की कूटनीति को नई दिशा दी।
विदेश मंत्री के रूप में प्रभावशाली भूमिका
पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद जब अमेरिका ने भारत पर प्रतिबंध लगाए, तब जसवंत सिंह ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष मजबूती से रखा। पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में भी उनकी भूमिका सराहनीय रही। वे भारत की विदेश नीति को आत्मविश्वास और संतुलन के साथ आगे ले गए।
रक्षा और वित्त मंत्रालय में योगदान
2002 से 2004 तक रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने कारगिल युद्ध के बाद सेना के आधुनिकीकरण पर जोर दिया। वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक सुधारों को गति दी, लेकिन 1999 के कंधार हाईजैक कांड ने उनकी छवि को झटका दिया। आतंकवादियों को रिहा करने के निर्णय की राजनीतिक आलोचना हुई, हालांकि उन्होंने इसे राष्ट्रीय हित में लिया गया निर्णय बताया।
बेबाकी और विवादों का दौर
जसवंत सिंह की बेबाकी उन्हें कई बार विवादों में भी ले गई। 2009 में उनकी पुस्तक ‘जिन्ना: इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया। उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को ‘सेकुलर’ बताया, जिससे भाजपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। यह घटना उनके राजनीतिक जीवन में एक निर्णायक मोड़ साबित हुई।
निर्दलीय चुनाव और राजनीतिक संघर्ष
2014 में जब भाजपा ने उन्हें बाड़मेर से टिकट नहीं दिया, तो उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया। हालांकि वे हार गए, लेकिन उन्होंने राजनीति से संन्यास नहीं लिया। स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद वे व्हीलचेयर पर आ गए, फिर भी वे सक्रिय रहे और राजनीतिक चर्चाओं में भाग लेते रहे।
अंतिम विदाई और स्थायी विरासत
27 सितंबर 2020 को 82 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनके निधन के साथ भारतीय राजनीति ने एक ऐसा नेता खो दिया, जिसने सत्ता से अधिक सिद्धांतों को महत्व दिया। उनकी विरासत में कूटनीतिक कौशल, सैन्य अनुभव और नैतिक साहस शामिल है।
सिद्धांतों की राजनीति के प्रतीक
आज जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है, जसवंत सिंह जैसे नेताओं की याद दिलाती है कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि सिद्धांतों की लड़ाई है। उनकी जीवनगाथा युवा नेताओं के लिए प्रेरणा है कि साहस, स्वाभिमान और ईमानदारी से भी राजनीति की जा सकती है। जसवंत सिंह का नाम भारतीय राजनीति में एक ऐसे अध्याय के रूप में दर्ज है, जो कभी मिटाया नहीं जा सकता।

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