
देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था में पुलिस सुधार का मुद्दा आज भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। हाल ही में, पुलिस हिरासत में हुई मौतों के मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ मामलों पर सुप्रीम कोर्ट का संज्ञान लेना, पुलिस के कामकाज पर फिर से गंभीर सवाल खड़े करता है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इन मामलों को देखने के साथ-साथ, शीर्ष अदालत को पुलिस सुधार संबंधी अपने 2006 के ऐतिहासिक आदेश के अनुपालन की वस्तुस्थिति पर भी ध्यान देना चाहिए।
2006 का ऐतिहासिक फैसला और संस्थागत सुधार
एक जनहित याचिका पर 10 साल की लंबी बहस के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर, 2006 को पुलिसिंग में मौलिक बदलाव लाने के लिए तीन संस्थागत सुधारों के निर्देश दिए थे:
स्टेट सिक्योरिटी कमीशन (SSC) का गठन: इसका मुख्य उद्देश्य पुलिस को बाहरी राजनीतिक दबाव से मुक्त करना था।
पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड (PEB) और कंप्लेंट अथॉरिटी:
PEB को पोस्टिंग और ट्रांसफर के मामलों में पुलिस अधिकारियों को अधिकार देना था।
एक कंप्लेंट अथॉरिटी की स्थापना की जानी थी, जो पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध गंभीर शिकायतों की जांच करे।
पुलिस महानिदेशक (DGP) के चयन के लिए ऐसी प्रक्रिया बनाना, जिससे केवल श्रेष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति हो और उनका कार्यकाल कम से कम दो वर्ष का हो।
जांच (Investigation) और कानून-व्यवस्था (Law & Order) के कार्यों का पृथक्करण: बड़े शहरों में इन दोनों कार्यों को अलग-अलग किया जाना था।

सुधार की उम्मीदें टूटीं, यथास्थिति बरकरार
इस फैसले के बाद आशा थी कि पुलिस विभाग को एक नई दिशा मिलेगी, पुलिसकर्मी संविधान और कानून के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेंगे और जनता के प्रति उनका व्यवहार संवेदनशील होगा। दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में कुछ राज्यों ने केवल दिखावटी आदेश जारी किए या ऐसे अधिनियम बनाए जो वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन करते थे। नतीजा यह हुआ कि जमीनी स्तर पर हालात जस के तस हैं और कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।
वास्तव में, राज्य सरकारों को यह लगा कि यदि इन आदेशों को सही ढंग से लागू किया गया, तो पुलिस उनके नियंत्रण से बाहर हो जाएगी, और वे उसका जैसा उपयोग या दुरुपयोग करती हैं, वैसा नहीं कर पाएंगी। इसलिए, नेताओं और नौकरशाहों ने मिलकर इस आदेश का दिखावे के लिए पालन करने, लेकिन वास्तविक परिवर्तन को रोकने का मन बना लिया।
साठगांठ का लंबा इतिहास
देश की आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में, पुलिस अधिकारियों की नई पौध में देशसेवा की भावना थी। लेकिन, समय बीतने के साथ पुलिस और नेताओं के बीच साठगांठ बढ़ती गई। इसका बीभत्स स्वरूप 1975 में इमरजेंसी के दौरान दिखा, जब नेताओं के कहने पर फर्जी रिपोर्ट लिखी गईं, लोगों को अकारण गिरफ्तार किया गया और तरह-तरह के अत्याचार हुए।
इसकी जांच के लिए गठित शाह कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा कि यदि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकनी है, तो पुलिस को बाहरी दबाव से मुक्त करना अनिवार्य है। इसके बाद, नेशनल पुलिस कमीशन (1977) का गठन हुआ, जिसने विस्तृत सुझाव दिए, लेकिन राजनीतिक कारणों से उसकी रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया गया। 2008 में थामस कमेटी ने भी पाया कि 2006 के आदेश के पालन में सभी राज्यों में उदासीनता है।

भविष्य की रणनीति: तीन अहम कदम
लेखक (उत्तर प्रदेश पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक) के अनुसार, भविष्य में सुधार के लिए तीन काम करने की तत्काल आवश्यकता है:
आंतरिक सुधार और व्यवहार परिवर्तन: पुलिस अधिकारियों को ऐसे आंतरिक सुधारों पर ध्यान देना चाहिए जिनके लिए सरकारी स्वीकृति या धनराशि की आवश्यकता नहीं है। जनता में पुलिस के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए उन्हें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा और रिपोर्ट लिखने में होने वाली कोताही को खत्म करना होगा।
इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार: जनशक्ति की कमी को दूर किया जाए, वाहनों की संख्या बढ़ाई जाए, संचार व्यवस्था और फोरेंसिक लैबोरेट्रीज को आधुनिक बनाया जाए। साथ ही, पुलिसकर्मियों की आवासीय सुविधा को बेहतर करना अत्यंत आवश्यक है, जिससे उनका मनोबल और कार्यक्षमता बढ़े।
तकनीक का अधिकतम प्रयोग: सीसीटीएनएस और नेटग्रिड जैसी प्रणालियों के साथ-साथ, साइबर क्राइम से निपटने के लिए बेहतर प्रशिक्षित स्टाफ तैयार करना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का भी जहां संभव हो, प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि पुलिस की कार्यक्षमता में वृद्धि हो।
आज जब प्रधानमंत्री बार-बार विकसित भारत की बात करते हैं, तो यह समझना होगा कि विकसित भारत के लिए पुलिस को भी विकसित होना पड़ेगा। यह विकास संस्थागत परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। आज की शासकीय पुलिस को जनता की पुलिस में परिवर्तित करना ही समय की मांग है।

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