
आज के अशांत और संघर्ष से भरे संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में शांति, ख़ुशी और आश्रय की तलाश में भटक रहा है। इस गहन मानवीय खोज के बीच, एक मूलभूत प्रश्न उठता है: क्या हम वास्तव में खुशी (Happiness) की खोज कर रहे हैं, या हम मात्र किसी प्रकार की परितुष्टि या संतुष्टि (Gratification) को पाना चाहते हैं, जिससे हम ख़ुशी मिल जाने की उम्मीद करते हैं? यह भेद समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यही हमारी मंशा और हमारी यात्रा की दिशा तय करता है।
लेखक के अनुसार, हममें से अधिकांश लोग संभवतः परितुष्टि की तलाश कर रहे हैं। हम अपनी खोज के अंत में एक ऐसी पूर्णता का एहसास चाहते हैं, जो हमें संतुष्ट कर दे। इस खोज में हम एक नेता से दूसरे नेता, एक धार्मिक संगठन से दूसरे धार्मिक संगठन, या एक गुरु से दूसरे गुरु की ओर निरंतर भागते रहते हैं, क्योंकि हमें उम्मीद होती है कि कहीं न कहीं हमें वह आश्रय मिल जाएगा जहाँ कुछ शांति हो।
ख़ुशी खोजी नहीं जा सकती, वह तो आनुषंगिक है
लेखक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ख़ुशी और तुष्टि में मौलिक अंतर है। उनका मानना है कि आप संभवतः तुष्टि (संतुष्टि) प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन खुशी नहीं।
“ख़ुशी आनुषंगिक है, वह तो किसी और चीज के साथ अनायास चली आती है।”
यह एक गंभीर विचार है जिस पर गहन जिज्ञासा, ध्यान और सोच की आवश्यकता है। किसी बाहरी बीज की तलाश में भागने से पहले, हमें अपने भीतर यह स्पष्ट करना होगा कि हमारी वास्तविक इच्छा क्या है—ख़ुशी या तुष्टि?

आंखें मूंदकर आश्रय लेना समस्या का हल नहीं
यदि कोई व्यक्ति केवल शांति की खोज कर रहा है, तो लेखक का मानना है कि वह इसे “बड़ी आसानी से” पा सकता है। यह व्यक्ति आँखें मूंदकर अपने आपको किसी विचार, उद्देश्य या संगठन के प्रति समर्पित कर सकता है और उसी में आश्रय ले सकता है।
लेकिन, ऐसा करना द्वंद्व से मुक्ति नहीं दिलाता। लेखक चेतावनी देते हैं कि किसी विचार के घेरे में अपने को अलग-थलग कर लेने से समस्या का वास्तविक हल नहीं होता। यह समाधान से बचने का एक तरीका मात्र हो सकता है।
अपनी मंशा में स्पष्टता की कठिनाई
सबसे बड़ी कठिनाई अपनी मंशा के साफ होने की है। लेखक पूछते हैं, “क्या इस बारे में हम स्पष्ट हो सकते हैं?” क्या यह स्पष्टता किसी बाहरी स्रोत—चाहे वह कोई उच्च दर्जे का शिक्षक हो या गली का पादरी—की बातों का पता लगाने से आएगी?
हम अक्सर कहते हैं कि कोई विशेष ग्रंथ, आचार्य या संगठन हमें संतुष्ट करता है; हमने जो कुछ भी चाहा, वह हमें उसमें मिल गया है। और हम उसी में जड़ होकर रह जाते हैं।

इस बाहरी निर्भरता का परिणाम यह होता है कि हम अपने आप को नहीं पहचान पाते। हम किताबों में लिखे तथ्यों के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं, पर खुद से कुछ नहीं जानते। हमें किसी भी चीज का सीधा और व्यक्तिगत अनुभव नहीं होता।
इसलिए, इस बेचैन यात्रा को समाप्त करने के लिए, हमें बाहरी दौड़ को रोककर अपने भीतर और बाहर यह पता लगाना होगा कि वह क्या है जिसे हममें से हर कोई चाहता है। यदि हमारी मंशा स्पष्ट है, तो हमें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

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