
भारतीय राजनीति के आकाश में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिनकी आभा उनकी पार्टी की सीमाओं से परे जाकर पूरे राष्ट्र को प्रकाशित करती है। ऐसे ही एक महान योद्धा थे भागवत झा आजाद, जिन्हें उनके अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प के लिए ‘शेर-ए-बिहार’ की उपाधि से नवाज़ा गया था। आजादी के संग्राम से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री पद तक का उनका सफ़र संघर्ष, समर्पण और अटूट इच्छाशक्ति की वह मिसाल है, जो आज भी भारतीय युवाओं को कर्तव्यपथ पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
‘आज़ाद’ उपनाम की दिलचस्प कहानी
भागवत झा आजाद का जन्म 28 नवंबर 1922 को अविभाजित बिहार (अब झारखंड) के गोड्डा जिले के मेहरमा प्रखंड के कसबा गांव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता की मेहनत और देशभक्ति की सीख ने ही बालक भागवत में साहस के बीज बोए।
उनका मूल नाम भागवत झा था, लेकिन ‘आज़ाद’ उपनाम का उनके साथ जुड़ना उनके व्यक्तित्व के साहस को दर्शाता है। यह घटना 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान की है। जब युवा भागवत झा को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार किया, तो पुलिस ने उनसे उनका नाम पूछा। उन्होंने बिना किसी डर के, गर्व से उत्तर दिया, “मेरा नाम आजाद है।” यह निर्भीक घोषणा केवल एक जवाब नहीं थी, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के प्रति उनके विद्रोह का शंखनाद था। इस घटना ने उन्हें न सिर्फ आजादी का प्रतीक बना दिया, बल्कि उनके व्यक्तित्व की अटूट ज़िद और साहस को भी हमेशा के लिए उजागर कर दिया।

शिक्षा से संघर्ष तक का प्रेरक पथ
शिक्षा के प्रति आजाद का समर्पण भी कम नहीं था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई स्थानीय स्कूलों से पूरी की और बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की। हालाँकि, उनकी औपचारिक शिक्षा तब बीच में रुक गई जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1942 का आंदोलन चरम पर था।
युवा भागवत झा आज़ाद बिना किसी हिचकिचाहट के इस महान राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने भूमिगत रहते हुए दिन-रात ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ काम किया। वे गोपनीय ढंग से पर्चे बाँटते, गुप्त सभाओं का आयोजन करते और अपने साथियों को संघर्ष के लिए प्रेरित करते रहे। इस सक्रिय भूमिका के कारण उन्हें कई बार जेल यात्राएँ भी करनी पड़ीं। जेल से बाहर आने के बाद, उन्होंने तुरंत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपना जीवन समर्पित कर दिया। बिहार प्रांत कांग्रेस कमेटी में उनकी बढ़ती भूमिका ने उन्हें जल्द ही प्रदेश स्तर का एक प्रभावशाली नेता बना दिया।
संसद से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक का सफर
भागवत झा आजाद के राजनीतिक करियर ने 1950 के दशक में तेज़ी पकड़ी। उन्होंने बिहार विधानसभा के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएँ दीं और विभिन्न मंत्रालयों में मंत्री के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन उनकी असली पहचान तब बनी जब उन्होंने लोकसभा चुनावों में अपनी पकड़ साबित की।
वे भागलपुर लोकसभा सीट से पाँच बार सांसद चुने गए। संसद में उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी, जो तथ्यों और तर्कों पर विश्वास रखता था। उनकी वाकपटुता और तर्कशक्ति इतनी प्रभावी थी कि विरोधी नेता भी उनके ज्ञान का लोहा मानते थे। वे हमेशा जनहित के मुद्दों को पूरी शक्ति और तैयारी के साथ उठाते थे।
बिहार की राजनीति में उनका योगदान अविस्मरणीय रहा है। 14 फरवरी 1988 से 10 मार्च 1989 तक वे बिहार के 18वें मुख्यमंत्री रहे। भले ही उनका यह कार्यकाल संक्षिप्त रहा, लेकिन उन्होंने इस दौरान राज्य की बुनियादी और ज्वलंत समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया। उनके कार्यकाल में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत कार्य, कृषि सुधार और गरीबी उन्मूलन योजनाओं को गति दी गई। उन्होंने हमेशा सिद्धांतों और अनुशासन को अपनी राजनीति का आधार बनाए रखा।

प्रेरणादायक व्यक्तिगत जीवन और विरासत
भागवत झा आजाद का निजी जीवन भी उतना ही प्रेरणादायक था। वह एक मजबूत पारिवारिक व्यक्ति थे और युवाओं को प्रेरित करने वाले खेलप्रेमी थे। उनके पुत्र कीर्ति आजाद ने भी राष्ट्रीय और राजनीतिक फलक पर अपनी पहचान बनाई। कीर्ति आजाद ने 1983 में विश्व कप जीतने वाली भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा बनकर देश का गौरव बढ़ाया। यह इस बात का प्रमाण है कि भागवत झा आजाद ने अपने परिवार को भी अनुशासन और उत्कृष्टता की सीख दी।
सिद्धांतों से कभी समझौता न करने वाले और निडरता के पर्याय ‘शेर-ए-बिहार’, भागवत झा आजाद का 4 अक्टूबर 2011 को 88 वर्ष की आयु में दिल्ली में निधन हो गया। वे अपने पीछे सादगी, साहस और जनसेवा के प्रति अटूट निष्ठा की एक ऐसी अमिट विरासत छोड़ गए हैं, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में हमेशा चमकती रहेगी।

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