
इतिहास के पन्नों में कुछ शख्सियतें ऐसी होती हैं जिनकी महानता सिर्फ उनके सार्वजनिक कार्यों में नहीं, बल्कि उनके जीवन के निर्णायक क्षणों में झलकती है। भारत रत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय (1861-1946) ऐसी ही एक विभूति थे, जिनकी जीवन यात्रा एक साधारण व्यक्ति की ‘स्वार्थ’ केंद्रित जीवनशैली से उठकर ‘परमार्थ’ की पराकाष्ठा तक पहुंची। उनकी यह यात्रा उनके गहन सामाजिक समर्पण और अपनी माँ के निस्वार्थ प्रेम के बीच के एक हृदय विदारक क्षण से शुरू हुई थी।
सामाजिक कार्यों में डूबा एक होनहार युवा
महान शख्सियतें अक्सर उस दुनिया से अलग होती हैं, जहां लोग केवल अपने बारे में सोचते हैं, अपने निकट परिजनों तक की चिंता नहीं करते। महामना मालवीय के साथ भी प्रारंभिक जीवन में कुछ ऐसा ही था। वह युवावस्था से ही देश-दुनिया की चिंता में डूबे रहते थे। घर उनके लिए केवल दाना-पानी और आराम का केंद्र था। उन्हें इसकी परवाह नहीं थी कि उनकी थाली में भोजन किसके परिश्रम से आ रहा है।
वह 23 वर्ष के हो चुके थे, पढ़ने में तेज थे, लेकिन सामाजिक कार्यों में उनकी व्यस्तता इतनी अधिक थी कि एक बार तो वह बीए की परीक्षा में फेल भी हो गए। फिर भी, उनकी माँ ने पुत्र-सेवा में कभी कमी नहीं आने दी। वह वर्षों से एक ही क्रम दोहराती थीं: अपने बेटे के लिए हमेशा रोटियाँ बचाकर रखती थीं, यह जानते हुए कि जब वह देर से आएगा, तो भूखा होगा और उसके सामने तुरंत भोजन परोसना होगा। घर से निश्चिंत होकर मालवीय जी की सक्रियता समाज में निरंतर बढ़ती रही।

जब बेटे को हुआ परिवार के कर्तव्य का एहसास
अगले साल जब उन्होंने बीए पास किया, तो माँ को उम्मीद थी कि अब बेटा परिवार की ज़िम्मेदारी उठाएगा। लेकिन युवक की प्राथमिकता में परिवार नहीं था। वह भारतीय शास्त्रों का व्याख्याता बनने और धार्मिक प्रवचन देने की तीव्र इच्छा रखते थे। उनका जीवन सनातन की सेवा में समर्पित करने का संकल्प था। उन्होंने एमए में प्रवेश ले लिया, और माँ तब भी उन्हें जरूरी सुविधाओं से घेरे रखती थीं।
पर हर त्याग की एक सीमा होती है। एक दिन युवक के एक रिश्तेदार उनके लिए इंटर कॉलेज में शिक्षक की नौकरी का प्रस्ताव लेकर आए। युवक ने यह कहते हुए तुरंत मना कर दिया कि उसे और पढ़ना है। तब उस रिश्तेदार ने ही वह कटु सत्य कहा, जिसने युवक को झकझोर दिया। रिश्तेदार ने उलाहना दिया:
“तुम्हें अपने परिवार का पता है? माली हालात खराब होती जा रही है। तुम्हारी माँ दिन में एक बार भोजन करती हैं, रोटियाँ बचाती हैं, ताकि जब तुम बाहर से लौटो, तो तुम्हारी भूख का समाधान हो। एक तुम हो, पूरी दुनिया का हाल पता है, पर अपने ही घर में तुमने कभी झांककर देखा नहीं कि घर आखिर तुम्हारी सेवा कैसे कर रहा है?”
माँ के आँसू और जीवन का कायाकल्प
यह सुनकर युवक को जोरदार झटका लगा। जब वह घर पहुँचे, तो माँ की आँखों में आँसू थे, क्योंकि उन्हें पहले ही पता लग गया था कि बेटे ने नौकरी से मना कर दिया है। माँ ने उदास स्वर में बेटे को आश्वस्त किया कि ”वह चिंता न करे, उसे जो अच्छा लगे, वही करे। जैसे अब तक चलता रहा है, वैसे ही आगे भी चलता रहेगा।”
परिवार के प्रति अपने कर्तव्य से दूर रहने वाला वह युवा स्तब्ध रह गया। माँ की आँखों से बहे जा रहे आँसुओं में इतनी गहराई थी कि युवक की तमाम धार्मिक और अध्ययन की मुरादें डूबने को बेताब हो गईं। बेटे ने रुंधे गले से माँ से कहा: “माँ, आप अब एक शब्द भी न बोलिए। मैं यह नौकरी जरूर करूँगा।”
मल्लई से मालवीय बनने तक का सफर
बेटा तत्काल इंटर कॉलेज गया और नौकरी के लिए आवेदन कर दिया। उसे चालीस रुपये महीना की तनख्वाह पर शिक्षक की नौकरी मिल गई। वह इतना अच्छा शिक्षक साबित हुआ कि दो महीने में ही तनख्वाह बढ़कर 60 रुपये हो गई। यह उस दौर में एक ठीक-ठाक रकम थी, जब प्रति तोला सोने का भाव 20 रुपये भी नहीं था।
जैसे ही परिवार की ज़िम्मेदारी का एहसास हुआ, उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। उन्होंने सिर्फ अपना रोजमर्रा का काम नहीं बदला, बल्कि अपना नाम भी बदल लिया। वह मल्लई से मालवीय हो गए, और लोग उन्हें पंडित मदन मोहन मालवीय के नाम से जानने लगे। परिवार की खातिर एमए करने का इरादा टल गया, और फिर उन्हें कभी इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी।
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और फारसी के इस विद्वान की ख्याति शिक्षक के रूप में इतनी तेज़ी से फैली कि उन्हें पूरा इलाहाबाद जानने लगा। उन्होंने ज्ञान क्षेत्र से कर्मक्षेत्र में छलांग लगाई और एक के बाद एक संस्थाएं बनाते चले गए। भाषा (हिंदी), समाज, सनातन धर्म, राजनीति, और शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जितने अनुपम संस्थान खड़े किए, उतना शायद ही किसी एक व्यक्ति ने किया हो।

महामना की उपाधि और अमर विरासत
कांग्रेस अध्यक्ष रहने से लेकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) जैसी अनुपम संस्था की स्थापना तक, उनके असाधारण कार्यों को देखकर उन्हें महामना कहा गया। वह बुनियादी रूप से आजीवन शिक्षक ही रहे। 5 अक्टूबर को जब विश्व शिक्षक दिवस मनाया जाता है, तब भारत ही नहीं, दुनिया के बेहतरीन शिक्षकों में उनकी गणना गर्व से होती है।
यह भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है कि परिवार के प्रति कर्तव्यबोध और अपनी माँ के आंसुओं से उपजे, भारतरत्न महामना ने अपनी असाधारण प्रतिभा को राष्ट्र और समाज के निर्माण में लगा दिया। उनका जीवन बताता है कि परमार्थ की प्रेरणा अक्सर अपने सबसे करीबी रिश्तों के निस्वार्थ प्रेम से ही मिलती है।

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