
बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है, और इसके साथ ही राज्य की राजनीतिक बिसात पर कई बड़े सवाल खड़े हो गए हैं। मतदाताओं के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या जनता दल यूनाइटेड (जदयू) नेता नीतीश कुमार लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बन पाएँगे? क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) जीतता है तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक नए चेहरे को मुख्यमंत्री बनाएगी? या फिर विपक्ष सत्ता पर काबिज होगा?
नीतीश कुमार का भविष्य और चुनौतियों का अंबार
दो दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश कुमार अब भी सभी दलों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं, जिससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या उनका भविष्य ही बिहार की राजनीति का भविष्य होगा?
भले ही उनके शासन में कई क्षेत्रों में प्रगति हुई हो, लेकिन शिक्षा, युवाओं में बेरोजगारी, राज्य से श्रमिकों का पलायन, भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था को लेकर चिंता अब भी बनी हुई है। इन चिंताओं के साथ ही नीतीश का स्वास्थ्य भी राजनीतिक चर्चा का विषय है।
सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए, नीतीश सरकार ने महिलाओं को लुभाने के प्रयास तेज किए हैं। सरकार ने एक करोड़ महिलाओं के खातों में ₹10,000 हस्तांतरित किए हैं और कई रियायतों व लाभों की घोषणा की है। नीतीश को हमेशा महिला मतदाताओं का मजबूत समर्थन मिला है, जिसने विपक्ष की चुनावी गणनाओं को अक्सर गड़बड़ाया है।

कांटे की टक्कर और महागठबंधन की आंतरिक चुनौती
ज्यादातर सर्वेक्षण कांटे की टक्कर का संकेत दे रहे हैं, लेकिन वे सत्तारूढ़ राजग के लिए अनुकूल नतीजों की संभावना से इनकार नहीं करते। कुछ सर्वेक्षणों का दावा है कि शुरुआत में बढ़त का संकेत देने वाला महागठबंधन अब तेजस्वी यादव के सहयोगियों से मतभेद और लालू परिवार में बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण पिछड़ रहा है।
लालू यादव बेशक विपक्षी गठबंधन के पितामह बने हुए हैं, जो यादव और मुस्लिम समर्थन से अपनी ताकत पाता है। लेकिन विपक्ष को अब तक नीतीश या प्रधानमंत्री मोदी का मुकाबला करने लायक कोई मजबूत और सर्वमान्य चेहरा नहीं मिला है। तेजस्वी यादव को लोकप्रिय चेहरे के रूप में देखा जाता है। हालांकि, कांग्रेस या उसके सहयोगियों की ओर से अब तक इसकी पुष्टि नहीं हुई है कि वह गठबंधन का मुख्यमंत्री चेहरा होंगे।
जाति का निर्णायक कारक: अत्यंत पिछड़ा वर्ग पर सबकी निगाहें
विकास पर जोर के बावजूद, बिहार की राजनीति में जाति एक निर्णायक कारक है। हर पार्टी की चुनावी रणनीति समुदाय-आधारित लामबंदी से गहराई से प्रभावित है। राजग का लक्ष्य हमेशा से ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) के लिए समर्थन को मजबूत करना रहा है। राजद को भी एहसास है कि प्रभावी प्रतिस्पर्धा के लिए उसे अन्य जातियों तक अपनी पहुँच बढ़ानी होगी। छोटी जाति-केंद्रित पार्टियाँ, विशेषकर अनुसूचित जाति (एससी) निर्वाचन क्षेत्रों को प्रभावित करने वाली पार्टियाँ, करीबी मुकाबलों में ‘किंगमेकर’ बन सकती हैं।

ईबीसी को लुभाने की कवायद
महागठबंधन, जिसमें राजद, कांग्रेस, वामपंथी पार्टियाँ, वीआईपी, झामुमो और चिराग पासवान के चाचा के नेतृत्व में लोजपा का एक धड़ा शामिल है, बिहार के अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) को लुभाने की उम्मीद कर रहा है, जो राज्य की आबादी का 36.01 प्रतिशत है और जाति-आधारित सर्वेक्षण में सबसे बड़ा समूह है। ईबीसी में नाई, मछुआरे, लोहार, तेली और नोनिया जैसे लगभग 130 समूह शामिल हैं।
मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने नौकरियों, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं में आरक्षण प्रदान करके ईबीसी को लाभ पहुँचाया है, जिसमें पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों में 20 प्रतिशत आरक्षण लागू करना शामिल था।
लेकिन, नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर के अंतिम पड़ाव पर होने के कारण तेजस्वी को लगता है कि ईबीसी के वोट शायद सिर्फ राजग के पास ही न रहें। इसीलिए वे नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर लगातार सवाल उठाते हैं। इसी क्रम में, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने 10 सूत्री ‘अति पिछड़ा संकल्प पत्र’ जारी किया था, जो ईबीसी को साधने की स्पष्ट कोशिश है।
गठबंधन के अंदर सीट बँटवारे की खींचतान
दोनों प्रमुख गठबंधन (एनडीए और महागठबंधन) इस समय सीट बंटवारे की बातचीत में उलझे हैं। 243 विधानसभा सीटों में से किसे कितनी सीटें मिलेंगी और कौन-सी सीट मिलेगी, यह विवाद का विषय है।
राजग में भाजपा, जद (यू), हम, आरएलएम और लोजपा शामिल हैं। चर्चा है कि जद (यू) अच्छी संख्या में सीटें चाहती है, ताकि भाजपा से नेतृत्व को कोई चुनौती न मिले। जद (यू) नेता सर्वेक्षणों का हवाला देकर बता रहे हैं कि नीतीश को स्थानीय स्तर पर मजबूत समर्थन प्राप्त है।
महागठबंधन में सीटों के बँटवारे को लेकर दरार उभर रही है। हाल ही में, वामपंथी दल सार्वजनिक रूप से अपनी सीटों की मांग कर रहे थे। कांग्रेस भी बिहार में महाराष्ट्र वाला फॉर्मूला अपनाना चाहती है, जहाँ उसने बिना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए चुनाव लड़ा था। राजद इस रवैये से निराश है और उसे डर है कि महाराष्ट्र जैसी हार बिहार में भी हो सकती है। तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार न बनाने के पीछे कांग्रेस के अपने तर्क हैं, जिसमें लालू प्रसाद के अदालती मामलों को भी ध्यान में रखने की बात सामने आई है।
प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज’: किंगमेकर की भूमिका
इस साल के चुनाव में एक तीसरा पक्ष भी है—प्रशांत किशोर का जन सुराज। उनकी पार्टी राजग और महागठबंधन, दोनों के वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। उन्होंने सोशल मीडिया के जरिये युवाओं का खासा ध्यान आकर्षित किया है और राज्य के हर जिले में पदयात्राएँ की हैं। किशोर दोनों प्रमुख गठबंधनों को चुनौती दे रहे हैं। भले ही वह भारी भीड़ जुटा रहे हैं, लेकिन वह यह दावा नहीं करते कि सरकार बना पाएँगे। पर उनका कहना है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में वह किंगमेकर की भूमिका निभाएँगे।
कांग्रेस की कमजोरी और ‘वोट चोरी’ का दाँव
एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ के दावों का अपेक्षित असर नहीं हुआ। कांग्रेस फिलहाल बिहार में मजबूत नहीं है, हालाँकि वह महागठबंधन में राजद के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। कई राजद नेताओं का मानना है कि राहुल ने तेजस्वी को वोट चोरी के मुद्दे में घसीटकर समय बर्बाद किया।
कुल मिलाकर, बिहार चुनाव 2025 केवल दो गठबंधनों के बीच का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य, जातिगत समीकरणों की जटिलता, और नए किंगमेकर की संभावना से भरा हुआ है, जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं।

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