
बिहार की जटिल राजनीतिक बिसात पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक ऐसे मोहरे हैं, जिनकी स्थिति भले ही संख्याबल में कमजोर क्यों न हो, लेकिन सत्ता के खेल में उनका महत्व सबसे अधिक है। हाल के चुनावों में उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (JDU) के तीसरे स्थान पर पहुंचने के बावजूद, उनका राज्य की राजनीति में अपरिहार्य बने रहना ही बहुत कुछ कह जाता है। वर्तमान चुनावी चर्चाओं के केंद्र में नीतीश कुमार ही हैं, और उनके बगैर बिहार के राजनीतिक समीकरणों की कल्पना करना लगभग असंभव है।

ब्रांड नीतीश का उदय: सामाजिक न्याय की नई दिशा
2005 के बाद से बिहार की राजनीति में यह स्थापित सत्य है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली JDU के बिना राज्य में कोई भी स्थायी सरकार नहीं बन पाई है। इस अपरिहार्यता की जड़ें बिहार के गहरे सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों में हैं।
1-लालू-राबड़ी राजनीति से असहजता: मंडल की राजनीति के बाद बिहार में यादव और कुछ दबंग जातियों के प्रभाव से अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) और अति पिछड़ी जातियों (EBC) में एक प्रकार की बेचैनी महसूस होने लगी थी। यह अहसास होने लगा था कि सामाजिक न्याय की मलाई चंद प्रभावशाली जातियां ही चट कर रही हैं।
2-EBC वोट बैंक का निर्माण: जॉर्ज फर्नांडिस जैसे समाजवादी नेताओं ने इस असंतोष को समझा और लालू के इर्द-गिर्द गोलबंद ओबीसी और अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए ईबीसी (Extremely Backward Classes) का नया वोट बैंक तैयार किया।
3- कुर्मी नेता का साफ चेहरा: कुर्मी समुदाय से आने वाले और साफ छवि के नेता नीतीश कुमार को इस नए वोट बैंक का चेहरा बनाया गया। जनता दल में विभाजन कर समता पार्टी बनाई गई, जिसने भाजपा से गठबंधन किया। लंबे संघर्ष के बाद, 2005 में यही समीकरण ब्रांड नीतीश बनकर उभरा, जिसने लालू-राबड़ी के जंगलराज को समाप्त करने का नारा दिया।

भाजपा की मजबूरी और मार्केटिंग
भले ही ब्रांड नीतीश के शिल्पकार जॉर्ज फर्नांडिस थे, लेकिन इसकी मार्केटिंग में भाजपा की भूमिका भी निर्णायक रही। मंडल-कमंडल की राजनीति में भाजपा पारंपरिक रूप से अगड़ों की पार्टी मानी जाती थी। लालू के ओबीसी-अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाए बिना बिहार में बदलाव संभव नहीं था। भाजपा का गणित यही था कि नीतीश के ईबीसी जनाधार के माध्यम से ही सत्ता हासिल की जा सकती है। इस प्रकार, जदयू और भाजपा बिहार की राजनीति में एक-दूसरे के पूरक बने, जिसका शुरुआती लाभ नीतीश को मिला और वह बदलाव की राजनीति के नायक बन गए।
वोट बैंक का गणित: अपरिहार्यता की कुंजी
आज दो दशक बाद भी ब्रांड नीतीश की सबसे बड़ी ताकत बिहार का यही जमीनी सामाजिक-राजनीतिक गणित है। इसीलिए भाजपा को न चाहते हुए भी नीतीश को आगे करना पड़ा है।
1-तेजस्वी की सीमाएं: नीतीश के समक्ष लालू-राबड़ी की राजनीति के प्रतिनिधि अब तेजस्वी यादव हैं, जो अपना परंपरागत ‘एम-वाई’ (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक तो काफी हद तक बचाए रखने में सफल रहे हैं। लेकिन ब्रांड नीतीश के जरिये हुई ईबीसी और कुर्मी वोट बैंक की सेंधमारी की भरपाई वे नहीं कर पाए हैं।
2-सत्ता संतुलन की चाबी: 2020 के विधानसभा चुनाव में, जहां राजद को सर्वाधिक 23.5% वोट मिले, वहीं भाजपा को 19.8% वोट मिले थे। लेकिन JDU को मिले 15.7% वोटों ने सत्ता संतुलन की चाबी अपने हाथ में रखी, जिससे गठबंधन में सीटें कम होने के बावजूद नीतीश सत्ता की मजबूरी बने रहे।
इस गणित के बल पर ही नीतीश चुनावी राजनीति में न सिर्फ जरूरी बने हुए हैं, बल्कि दोनों बड़े दलों (भाजपा और राजद) के लिए सत्ता की मजबूरी भी बने हुए हैं।
ब्रांड नीतीश के सामने नई चुनौतियाँ
हालांकि, पिछले कुछ चुनावों से JDU का चुनावी ग्राफ गिरता दिखाई दे रहा है, जो नीतीश कुमार के लिए एक गंभीर चुनौती है। 2020 के विधानसभा चुनाव में JDU मात्र 43 सीटों पर सिमट गई। भले ही इसके पीछे चिराग पासवान और भाजपा की ‘शह’ की भूमिका बताई गई हो, लेकिन एक स्थापित ब्रांड को इतना जोरदार झटका मिलना उसकी बढ़ती कमजोरी को दर्शाता है।
विकास के दावे बनाम वास्तविकता
अब जनता नीतीश से सीधे सवाल कर रही है कि विकास के दावों के आईने में बिहार कहां खड़ा है। इसके साथ ही साथ नीतीश की बढ़ती उम्र और सेहत को लेकर उठते सवालों के चलते JDU नेताओं में भी अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति चिंता दिखती है। यह चिंता JDU के वोट बैंक को इन चुनावों में प्रभावित कर सकती है।
EBC में सेंधमारी के लिए सब जोर लगा रहे हैं। इस बार ईबीसी वोट बैंक को लक्षित कर कई छोटे दल चुनावी ताल ठोक रहे हैं। ये दल सीधे JDU के वोट बैंक में ही सेंध लगाएंगे।
मजबूरी बनाम दबदबा
अच्छी बात यह है कि नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का आरोप अभी तक कोई नहीं लगा पाया है, जो उनकी ‘साफ छवि’ को बनाए रखता है। हालांकि, अगर JDU का पारंपरिक ईबीसी वोट बैंक दरका, तो सत्ता के खेल में ब्रांड नीतीश का दबदबा भी प्रभावित हो सकता है। बिहार के दो प्रमुख दलों—भाजपा और राजद—के लिए नीतीश कुमार तभी तक जरूरी हैं, जब तक कि वह सरकार बनाने के लिए मजबूरी बने हुए हैं। यह चुनाव नीतीश कुमार के लिए निर्णायक बने रहने की चुनौती है। उन्हें न केवल अपने गिरते जनाधार को थामना होगा, बल्कि बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर अपनी अपरिहार्यता को भी पुनः स्थापित करना होगा।

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