
शिक्षक दिवस के अवसर पर जहां देशभर में गुरुओं को सम्मानित करने और उन्हें बधाई देने की परंपरा निभाई जा रही है, वहीं दार्शनिक, लेखक और समाजचिंतक आचार्य प्रशांत ने इस दिन को केवल औपचारिकता में समेटने के चलन पर गहरा सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि शिक्षक दिवस का अर्थ सिर्फ मेज पर फूल चढ़ाना या औपचारिक अभिवादन नहीं होना चाहिए, बल्कि यह दिन शिक्षा के मूल उद्देश्य — स्पष्टता, जिज्ञासा और आंतरिक स्वतंत्रता — पर विचार करने का अवसर बनना चाहिए।
शिक्षा का असली उद्देश्य: दूसरा जन्म
आचार्य प्रशांत ने कहा, “मनुष्य दो बार जन्म लेता है। पहला जैविक है और दूसरा, जो वास्तव में उसे ‘मनुष्य’ बनाता है, वह है स्पष्टता का जन्म। स्कूल और शिक्षक इस दूसरे जन्म के लिए होते हैं। अगर हम इस पर ध्यान नहीं देंगे तो समाज में कुशल पेशेवर तो होंगे, लेकिन वे आत्मिक रूप से असुरक्षित और अस्पष्ट मनुष्य बनेंगे।”
उनका मानना है कि शिक्षण केवल एक नौकरी नहीं, बल्कि मानवता को दिशा देने का कार्य है। यही कारण है कि इतिहास में जिन राष्ट्रों ने अपने शिक्षकों को सम्मान दिया, वे समृद्ध हुए, और जिन्होंने उन्हें उपेक्षित किया, वे चाहे कितने ही शक्तिशाली क्यों न रहे हों, धीरे-धीरे पतन की ओर गए।
शिक्षकों की स्थिति और समाज की जिम्मेदारी
उन्होंने कहा कि आज शिक्षा प्रणाली में कई गहरी समस्याएं हैं। “शिक्षण अब एक बुलावे या मिशन के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि सुरक्षित करियर का विकल्प बन गया है। पद रिक्त हैं, कक्षाएं अधूरी हैं, और शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों में झोंक दिया जाता है। इससे शिक्षा का मूल उद्देश्य समाप्त हो रहा है।”
आचार्य प्रशांत ने कहा कि जब शिक्षकों को राज्य का क्लर्क बना दिया जाता है और युवा मनों की उपेक्षा की जाती है, तो यह महज प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक विश्वासघात है।
शिक्षा का सीमित दृष्टिकोण और आत्म-ज्ञान का अभाव
उन्होंने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप की आलोचना करते हुए कहा कि “आज शिक्षा रटंत विद्या, अंकों और नौकरियों तक सिमट गई है। छात्रों को यह सिखाया जाता है कि उनका मूल्य केवल तब है, जब वे कठिन प्रतिस्पर्धा में सफल हों। लेकिन उन्हें यह पूछने की आज़ादी नहीं दी जाती कि वे वास्तव में कौन हैं और क्या चाहते हैं।”

इससे छात्रों में असमंजस, दबाव और आत्म-संदेह की स्थिति उत्पन्न होती है, जो कई बार आत्मघात जैसे दुखद परिणामों में भी बदल जाती है।
विद्या और अविद्या: शिक्षा के दो पहलू
आचार्य प्रशांत ने वेदांत के संदर्भ से स्पष्ट किया कि शिक्षा के दो पहलू होते हैं — विद्या और अविद्या।
विद्या हमें दुनिया को समझने की दक्षता देती है — विज्ञान, भाषा, तकनीक आदि के माध्यम से।
अविद्या हमें आत्म-ज्ञान की ओर ले जाती है, यह समझने में सहायता करती है कि ज्ञान कहां उपयोगी है और कहां नहीं।
उन्होंने जोर दिया कि दोनों धाराएं समान रूप से आवश्यक हैं। केवल बाहरी उपलब्धियों से जीवन नहीं संवरता, आंतरिक स्पष्टता के बिना वह अधूरा ही रहता है।
शिक्षक की भूमिका: पाठ्यक्रम से पहले स्वयं की स्पष्टता
शिक्षकों को संबोधित करते हुए आचार्य प्रशांत ने कहा कि एक सच्चा शिक्षक केवल विषय नहीं पढ़ाता, वह अपने अस्तित्व से पढ़ाता है।
“छात्र पहले शिक्षक के होने को पढ़ते हैं, उसके शब्दों को बाद में। सच्चा रिश्ता अंक देने या अनुशासन लागू करने से नहीं, बल्कि देखभाल और समझ से बनता है।”
उन्होंने कहा कि सच्चे शिक्षक छात्र को इस हद तक स्वतंत्र कर देते हैं कि अंततः वह शिक्षक पर निर्भर न रहे। ऐसे शिक्षक को केवल एक दिन माला पहनाकर सम्मानित करना दिखावा है। असली सम्मान है — एक ऐसी व्यवस्था बनाना, जो स्पष्ट, सक्षम और प्रेरक शिक्षकों को पनपने का अवसर दे।
शिक्षा व्यवस्था पर गहरा प्रश्न
आचार्य प्रशांत ने आज की शिक्षा व्यवस्था को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह सोचने का समय है कि क्या हम वाकई शिक्षा दे रहे हैं या केवल मशीनें बना रहे हैं।
उन्होंने कहा, “हम डॉक्टर, इंजीनियर और अधिकारी तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन बुद्धिमत्ता के बिना वे केवल अपने लिए ऊंची जेलें बना रहे हैं। शिक्षक दिवस तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक हम उस शिक्षा की रक्षा न करें जो जीवन को अर्थ देती है।”
आचार्य प्रशांत का संदेश एक चेतावनी और प्रेरणा दोनों है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि अगर हम शिक्षा के गहरे उद्देश्यों — आत्म-ज्ञान, स्वतंत्र सोच और स्पष्टता — को भूल जाते हैं, तो हर दिन केवल शिक्षा का ‘संस्कार’ नहीं, बल्कि उसका अंतिम संस्कार बन जाएगा।
शिक्षक दिवस को अगर वास्तव में अर्थपूर्ण बनाना है, तो हमें फूलों और भाषणों से आगे बढ़कर शिक्षा और शिक्षक दोनों को संरक्षित और सशक्त करना होगा। यही सच्चा सम्मान होगा — न केवल शिक्षकों

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