
मालेगांव 2008 बम विस्फोट मामले में विशेष एनआईए अदालत द्वारा सभी सात आरोपियों को बरी किए जाने के एक दिन बाद, महाराष्ट्र एटीएस के एक पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर के सनसनीखेज खुलासे ने पूरे देश का ध्यान फिर से इस मामले पर केंद्रित कर दिया है। जहां एक ओर अदालत ने सबूतों के अभाव में निर्णय सुनाया, वहीं दूसरी ओर पूर्व अधिकारी ने मामले से जुड़ी राजनीतिक दबाव और साजिशों की परतें खोल दीं।
2008 से 2025: एक लंबी न्यायिक यात्रा
29 सितंबर 2008 को नासिक जिले के मालेगांव में एक मोटरसाइकिल पर रखे बम के विस्फोट ने छह लोगों की जान ले ली और 100 से अधिक लोग घायल हुए। यह घटना रमज़ान और नवरात्रि जैसे धार्मिक अवसरों से कुछ दिन पहले हुई थी, जिससे इलाके में तनाव और भय का माहौल फैल गया। शुरुआती जांच से लेकर एनआईए तक, यह मामला वर्षों तक देश की राजनीति, मीडिया और कानून व्यवस्था का केंद्र बना रहा।
गुरुवार को एनआईए अदालत ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए कहा कि उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं। इनमें पूर्व बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित जैसे प्रमुख नाम भी शामिल थे। अदालत ने मृतकों के परिजनों को 2-2 लाख और घायलों को 50-50 हजार रुपये का मुआवजा देने का भी निर्देश दिया।
पूर्व एटीएस अधिकारी का बड़ा खुलासा
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद, पूर्व एटीएस अधिकारी महबूब मुजावर ने दावा किया कि उन्हें उस समय आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को गिरफ्तार करने के निर्देश मिले थे, जिनका नाम इस मामले में कभी आरोपी के तौर पर सामने नहीं आया था। उन्होंने बताया कि यह आदेश वरिष्ठ अधिकारियों, जिनमें परमबीर सिंह जैसे अधिकारी शामिल थे, की ओर से आया था।
मुजावर ने कहा, “मेरे पास 10 लोगों की टीम, एटीएस की फंडिंग और एक सर्विस रिवॉल्वर तक मुहैया कराई गई थी। लेकिन मैंने भागवत की गिरफ्तारी से इनकार किया क्योंकि कोई ठोस सबूत नहीं था।” उन्होंने दावा किया कि इस इनकार के बाद उन्हें झूठे मामले में फंसाकर गिरफ्तार किया गया, लेकिन कोर्ट ने अंततः उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया।
‘भगवा आतंकवाद’ से ‘कानूनी निष्कर्ष’ तक
मुजावर के बयान से यह भी स्पष्ट हुआ कि उस समय ‘भगवा आतंकवाद’ जैसी राजनीतिक रूप से संवेदनशील अवधारणा को बढ़ावा देने की कोशिशें हो रही थीं। उन्होंने कहा, “मैं ऐसा झूठ नहीं गढ़ सकता था। अगर मैंने गिरफ्तारी की होती, तो न जाने मेरे साथ क्या होता।”
न्याय की जीत, देश के लिए सबक
एनआईए अदालत का फैसला और महबूब मुजावर का खुलासा इस बात को दर्शाता है कि न्याय प्रक्रिया में समय लग सकता है, लेकिन अंततः सत्य की ही जीत होती है। यह घटना न केवल न्यायपालिका की निष्पक्षता को रेखांकित करती है, बल्कि यह भी बताती है कि कानून के दायरे में राजनीतिक दबाव टिक नहीं सकते।
अब जबकि 17 साल पुरानी इस त्रासदी को न्याय मिला है, देश की उम्मीद है कि भविष्य में किसी निर्दोष को राजनीतिक या वैचारिक मतभेदों के आधार पर निशाना नहीं बनाया जाएगा। मालेगांव का यह अध्याय इतिहास में सबक और चेतावनी, दोनों रूपों में दर्ज होगा।`

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