
लोकसभा और राज्यसभा में चल रहे मौजूदा गतिरोध और आरोप-प्रत्यारोप के दौर को देखकर भारतीय लोकतंत्र के उस स्वर्णिम काल की याद आना स्वाभाविक है, जब विचारों का टकराव होते हुए भी मर्यादा और गरिमा बरकरार रहती थी। अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि पर संसद के इतिहास का एक ऐसा ही प्रसंग फिर जीवंत हो उठता है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी के तेजस्वी व्यक्तित्व और वाक्पटुता से प्रभावित होकर भविष्यवाणी की थी कि यह युवक एक दिन देश की कमान संभालेगा।
नेहरू की भविष्यवाणी और वाजपेयी का उभार
साल 1957 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार संसद पहुंचे थे, तब वे विपक्ष की युवा आवाज माने जाते थे। उनकी ओजस्वी हिंदी, गहरी समझ और सधे हुए तर्क ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी प्रभावित किया। एक विदेशी मेहमान से परिचय कराते हुए नेहरू ने मुस्कराते हुए कहा था – “यह युवक एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा।” नेहरू की यह भविष्यवाणी दशकों बाद सच साबित हुई, जब वाजपेयी 1990 के दशक में देश के प्रधानमंत्री बने और तीन कार्यकाल तक देश का नेतृत्व किया।

मतभेद लेकिन सम्मान बरकरार
नेहरू और वाजपेयी की राजनीतिक सोच अलग थी। संसद में कई बार दोनों के बीच तीखी नोकझोंक भी होती थी। फिर भी व्यक्तिगत स्तर पर सम्मान और संवाद की परंपरा कायम रही। एक बार वाजपेयी ने नेहरू से कहा था कि उनका व्यक्तित्व चर्चिल और चेम्बरलेन दोनों का मिला-जुला रूप है। ऐसे कटाक्ष पर भी नेहरू नाराज नहीं हुए, बल्कि शाम की मुलाकात में उन्होंने वाजपेयी के भाषण की सराहना कर दी। यही भारतीय संसदीय परंपरा की खूबसूरती थी, जिसमें मतभेद के बावजूद व्यक्तिगत रिश्तों में कटुता नहीं आती थी।
संसदीय किस्से और हास्य-व्यंग्य
अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक सफर केवल भाषणों तक सीमित नहीं था, बल्कि उनके व्यक्तित्व का मानवीय और हास्यपूर्ण पक्ष भी संसद में झलकता था। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने एक बार सदन में चुटकी लेते हुए कहा था – “नेहरू जी ने एक बार कहा था कि अटल प्रधानमंत्री बनेगा, लेकिन आप तो दो बार प्रधानमंत्री बन गए। अब मुल्क की जान छोड़िए।” इस मजाक पर पूरा सदन ठहाकों से गूंज उठा और स्वयं वाजपेयी भी हंस पड़े।
विदेश मंत्री से प्रधानमंत्री तक का सफर
मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए वाजपेयी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को मजबूती दी। वे अकसर साउथ ब्लॉक की गलियों में टंगे नेहरू के चित्र की ओर देखते और उसे प्रणाम करते। एक बार जब उन्होंने देखा कि तस्वीर गायब है, तो खुद सुनिश्चित किया कि वह फिर से उसी स्थान पर लगाई जाए। यह प्रसंग बताता है कि वाजपेयी में राजनीतिक मतभेदों के बावजूद अपने पूर्व नेताओं के प्रति आदर और संस्कार बने रहे।

जनप्रिय नेता और गठबंधन राजनीति के शिल्पी
वाजपेयी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 में वे अल्पमत की वजह से केवल 13 दिन प्रधानमंत्री रह पाए, लेकिन 1999 में उन्होंने लगातार दूसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनाई। वे स्वतंत्र भारत के ऐसे पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने पूर्ण कार्यकाल पूरा किया। गठबंधन राजनीति को सफलतापूर्वक साधने और देशहित में विभिन्न दलों को साथ लेकर चलने की कला वाजपेयी की सबसे बड़ी विशेषता थी।
आज के संदर्भ में प्रासंगिकता
आज जब संसद के भीतर शोरगुल, अवरोध और मर्यादा भंग होने की घटनाएं आम हो गई हैं, तब वाजपेयी का संसदीय जीवन लोकतंत्र के लिए आदर्श बन जाता है। विपक्ष में रहते हुए भी उन्होंने सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा किया, लेकिन कभी व्यक्तिगत कटुता नहीं रखी। यही वजह है कि विरोधी दल भी उनकी वाणी और व्यक्तित्व के कायल रहे।

अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक जीवन यह साबित करता है कि लोकतंत्र केवल सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि संवाद, संयम और सहअस्तित्व का प्रतीक है। नेहरू से लेकर लालू यादव तक, उनके विरोधी भी उनके व्यक्तित्व और भाषण कला के कायल रहे। उनकी पुण्यतिथि पर यह स्मरण करना जरूरी है कि लोकतंत्र की असली ताकत मतभेदों के बीच भी मर्यादा बनाए रखने में है।
16 अगस्त 2018 को वाजपेयी का निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों और सहिष्णुता का जीवंत प्रतीक बनी हुई है।

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