
समाजवादी पार्टी (सपा) के संस्थापक सदस्यों में से एक और कभी पार्टी का सबसे बड़ा मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले मोहम्मद आजम खां की 23 महीने बाद हुई रिहाई ने पार्टी नेतृत्व को एक संवेदनशील रणनीतिक संतुलन की कसौटी पर ला खड़ा किया है। बुधवार को होने वाली आजम खां और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की बहुप्रतीक्षित मुलाकात को इसी संतुलन को साधने की एक अहम कवायद माना जा रहा है, जिसका सीधा असर पार्टी की भविष्य की राजनीति पर पड़ने की संभावना है।
आजम खां 23 सितंबर को सीतापुर जेल से रिहा हुए हैं। उनके जेल में रहने के दौरान सपा नेतृत्व पर पूरा साथ न देने के सवाल उठते रहे थे। रिहाई के बाद आजम ने भले ही पार्टी नेतृत्व पर सीधा हमला न बोला हो और न ही कोई सार्वजनिक चाहत जताई हो, परंतु उनके भावुक बयानों से यह साफ है कि वह अब पार्टी के अंदर पूरी तवज्जो और बड़ी भूमिका चाहते हैं। आजम की रामपुर सहित कई जिलों के विशेषकर मुस्लिम समाज में एक अच्छी-खासी पकड़ रही है, जिसका राजनीतिक लाभ सपा हमेशा उठाती रही है।

नेतृत्व का आंतरिक द्वंद्व और ‘पीडीए’ का नारा
सपा के अंदर इस राजनीतिक द्वंद्व के तीन कोण हैं, जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है….
–आजम खां: जो अपने भावुक बयानों से माहौल बनाने और पार्टी में अपनी खोई हुई ‘तवज्जो’ वापस पाने में लगे हैं।
–अन्य मुस्लिम नेता: पार्टी के कई अन्य मुस्लिम नेता इस डर से ग्रसित हैं कि आजम की सक्रियता से कहीं उनकी उपयोगिता और कीमत कम न हो जाए।
–पार्टी नेतृत्व (अखिलेश यादव): जो अगले वर्ष होने वाले पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक की बिसात बिछा रहे हैं।
अखिलेश यादव ने हाल ही में ‘पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (पीडीए)’ के नारे के साथ चुनाव की तैयारी शुरू की है। हालांकि, अखिलेश खुद यह साफ कर चुके हैं कि उनकी कोशिश अगड़ों सहित अन्य वर्गों का भी साथ पाने की है। इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य भाजपा की हिंदुत्व की रणनीति को कमजोर करना है।
यही वजह है कि आजम खां को लेकर ऐसे संतुलित कदम उठाए जा रहे हैं कि न तो उनके समर्थक नाराज हों और न ही पार्टी की व्यापक चुनावी रणनीति पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़े।

अखिलेश की मुलाकात का संदेश: ‘साथ हैं, पर केंद्र नहीं’
बुधवार को अखिलेश यादव और आजम खां की मुलाकात में पार्टी के अंदर मुस्लिम नेतृत्व का संतुलन साधने की यही कोशिश होगी। इस मुलाकात के जरिए मुख्य संदेश यह होगा कि पार्टी ने आजम खां को अकेला नहीं छोड़ा है और वह उनके साथ खड़ी है।
हालांकि, पार्टी अब यह भी नहीं चाहती कि आजम ही पार्टी का अकेला और संपूर्ण मुस्लिम चेहरा हों। सपा चाहती है कि दूसरे नेता भी उपेक्षित महसूस न करें या आजम के हस्तक्षेप के डर से असुरक्षित न हों। पार्टी की पूरी कोशिश यह संदेश देने की है कि:—
–पार्टी आजम खां के साथ तो है।
–परंतु आने वाले दिनों में उसके फैसलों का केंद्र सिर्फ वह नहीं होंगे।
–मुस्लिम नेतृत्व में सामूहिकता और संतुलन बनाए रखा जाएगा।
आजम खां की रिहाई के तुरंत बाद सपा प्रमुख द्वारा दिया गया बयान पार्टी की इसी रणनीतिक दूरदर्शिता का हिस्सा माना जा रहा है। अब मुलाकात में इसे और विस्तार देने की कोशिश होगी, क्योंकि सपा की एक बड़ी चिंता आजम खां का पुराना रवैया और उनकी तीखी बयानबाजी भी है। पार्टी को डर है कि उनकी अति-तीखी बयानबाजी कहीं गैर-मुस्लिम वोट बैंक को दूर न कर दे, जिससे ‘पीडीए’ प्लस अगड़े वर्ग को साधने की उसकी व्यापक रणनीति को नुकसान पहुँच सकता है।
यह मुलाकात केवल एक औपचारिक भेंट नहीं है, बल्कि सपा के लिए मुस्लिम समर्थन को बरकरार रखने और व्यापक सामाजिक आधार को साधने की एक जटिल राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है।

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