
महात्मा गांधी का जीवन सत्य, अहिंसा और सेवा के मूल्यों पर आधारित था। उन्होंने अपने विचारों और अनुभवों के माध्यम से समाज को दिशा देने का कार्य किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी यही भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वर्षों पहले गांधीजी संघ के एक शिविर में गए थे, जहां उन्होंने अनुशासन, सादगी और छुआछूत की समाप्ति को देखकर गहरा प्रभाव महसूस किया था। उस समय संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जीवित थे और गांधीजी को जमनालाल बजाज वहां लेकर गए थे।
गांधीजी ने उस अनुभव को याद करते हुए कहा था कि सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित कोई भी संस्था समय के साथ सशक्त होती जाती है। लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि त्याग तभी समाज के लिए उपयोगी होता है जब उसमें ध्येय की पवित्रता और सच्चे ज्ञान का समावेश हो। यदि त्याग में ये तत्व न हों, तो वह समाज के लिए अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
हिंदू धर्म की व्याख्या और समावेशिता का संदेश
गांधीजी ने स्वयं को सनातनी हिंदू बताया और कहा कि वे ‘सनातन’ का मूल अर्थ समझते हैं। उन्होंने हिंदू शब्द की उत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा कि यह नाम हमें दूसरों ने दिया और हमने उसे अपने स्वभाव के अनुसार अपना लिया। उनके अनुसार हिंदू धर्म ने सभी धर्मों की अच्छी बातों को आत्मसात किया है, इसलिए यह वर्जनशील नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंदू धर्म का किसी अन्य पंथ या उसके अनुयायियों से कोई झगड़ा नहीं हो सकता।

गांधीजी ने अस्पृश्यता को हिंदू धर्म के पतन का कारण बताया और कहा कि यदि यह बनी रही तो हिंदू धर्म समाप्त हो जाएगा। उन्होंने चेताया कि यदि हिंदू यह मानें कि भारत में केवल हिंदुओं के लिए ही स्थान है और अन्य को गुलाम बनकर रहना होगा, तो यह धर्म का नाश करेगा। इसी तरह यदि पाकिस्तान केवल मुसलमानों के लिए स्थान मानता है और गैर-मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखना चाहता है, तो वहां इस्लाम का नामोनिशान मिट जाएगा।
धर्म, राजनीति और चेतना का संतुलन
गांधीजी ने भारत के विभाजन को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि यदि एक हिस्सा शर्मनाक कार्य करे तो दूसरे को उसका अनुकरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने धर्म का हवाला देते हुए कहा कि बुराई का जवाब भलाई से देना चाहिए। उन्होंने संघ के तत्कालीन प्रमुख से हुई मुलाकात का उल्लेख करते हुए कहा कि संघ की नीति हिंदू धर्म की सेवा करना है, लेकिन किसी को नुकसान पहुंचाकर नहीं। संघ अहिंसा में विश्वास नहीं करता, लेकिन आक्रमण में भी नहीं। वह आत्म-रक्षा का कौशल सिखाता है, प्रतिशोध नहीं।
उन्होंने यह भी कहा कि संघ एक अनुशासित और संगठित संस्था है, जिसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ पर लगे आरोपों की सच्चाई पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन यह कहा कि संघ को अपने कार्यों से ही इन आरोपों को झूठा सिद्ध करना होगा।
राजनीतिक नेतृत्व पर विचार
गांधीजी ने उस समय के नेताओं को भारत के सर्वश्रेष्ठ नेता बताया, हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यदि कोई उनसे बेहतर नेता ला सकता है, तो उन्हें सत्ता सौंप दी जाए। उन्होंने सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की उम्र और कार्यभार का उल्लेख करते हुए कहा कि वे अपनी समझ के अनुसार जनता की सेवा कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यदि अधिकांश हिंदू किसी दिशा में जाना चाहते हैं, तो उन्हें रोका नहीं जा सकता, लेकिन किसी को चेतावनी देने का अधिकार है—और वही कार्य वे स्वयं कर रहे हैं।
सांप्रदायिक सद्भाव की अपील
गांधीजी ने यह स्पष्ट किया कि वे मुसलमानों के मित्र हैं, जैसे कि पारसियों और अन्य समुदायों के भी हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें हिंदुओं और सिखों का दुश्मन कहने वाले उन्हें नहीं पहचानते। उन्होंने यह भी कहा कि यदि पाकिस्तान लगातार बुराई करता रहा, तो अंततः भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध अवश्यंभावी होगा। उन्होंने आदर्श रूप में कहा कि यदि उनकी इच्छा चले तो वे न तो फौज रखें और न ही पुलिस, लेकिन यह शासन की वास्तविकता नहीं है।
उन्होंने पाकिस्तान से अपील की कि वह हिंदुओं और सिखों को मनाए कि वे वहीं रहें और उन्हें सुरक्षा प्रदान करे। इसी तरह भारत में भी प्रत्येक मुसलमान की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। उन्होंने दोनों देशों को “पागल” कहकर चेताया कि इस मार्ग का परिणाम केवल बर्बादी और तबाही होगा।
संघ और सेवकों के लिए बापू का अंतिम संदेश
गांधीजी का यह संदेश न केवल संघ के स्वयंसेवकों के लिए, बल्कि समस्त समाज के लिए एक चेतावनी और मार्गदर्शन है। उन्होंने सेवा, समरसता, त्याग और सत्य के मूल्यों को अपनाने की अपील की। उनका यह दृष्टिकोण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था जब भारत विभाजन और सांप्रदायिक तनावों से जूझ रहा था।
संघ की शक्ति को उन्होंने राष्ट्रहित में प्रयोग करने की सलाह दी और यह भी कहा कि संगठन की सच्चाई उसके कार्यों से सिद्ध होती है। गांधीजी का यह संदेश आज के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में भी एक प्रेरणा है—जो हमें बताता है कि धर्म, सेवा और समरसता ही भारत की असली पहचान हैं।

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