
बंगाल फाइल्स नाम की फिल्म इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक हलकों में चर्चा का विषय बनी हुई है। यह फिल्म अगस्त 1946 के कलकत्ता और नोआखाली की भीषण हिंसा पर आधारित है। उसी हिंसा को जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन डे के आह्वान से शुरू किया था, जिसे बाद में इतिहास ने ग्रेट कोलकाता किलिंग नाम दिया। विवेक रंजन अग्निहोत्री की यह फिल्म स्वतंत्रता और विभाजन से पहले के दौर की उन परिस्थितियों को चित्रित करती है, जिनमें भारत खून-खराबे और भयावह मारकाट से गुजरा था।
लेकिन फिल्म का सबसे बड़ा विवाद इसका पश्चिम बंगाल में प्रदर्शन न हो पाना है। राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने इसे नापसंद किया और सीधे प्रतिबंध लगाने की बजाय अघोषित पाबंदी का रास्ता चुना। मल्टीप्लेक्स मालिकों को साफ संकेत दिया गया कि फिल्म दिखाने पर उनकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और फिल्म का आधार
1946 का समय भारत की राजनीति का सबसे उथल-पुथल भरा दौर था। जिन्ना पाकिस्तान की मांग पर अड़े थे और कांग्रेस किसी भी कीमत पर विभाजन से बचने की कोशिश कर रही थी। ब्रिटिश सरकार ने इस बीच कैबिनेट मिशन भेजा, लेकिन प्रस्ताव जिन्ना को नागवार गुजरा। नतीजतन, उन्होंने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे का ऐलान कर दिया।
उस दिन बंगाल के प्रधानमंत्री एच.एस. सुहरावर्दी की सरकार ने पुलिस को छुट्टी पर भेज दिया। नतीजा यह हुआ कि कलकत्ता हिंसा की आग में जल उठा। हजारों लोग मारे गए, लाशों के ढेर लगे और घर-परिवार उजड़ गए। यही घटनाएं बंगाल फाइल्स में केंद्र में हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह विषय नया नहीं है। लाइफ पत्रिका ने 1946 में ‘कलकत्ता के गिद्ध’ शीर्षक से रौंगटे खड़े कर देने वाली तस्वीरें छापी थीं। श्याम बेनेगल के निर्देशन में बने राज्यसभा टीवी के सीरियल संविधान में भी इन घटनाओं को दिखाया गया था। यानी कलकत्ता किलिंग पर सामग्री पहले से सार्वजनिक रही है।

सेंसर बोर्ड और अदालत से मिली हरी झंडी
विवेक अग्निहोत्री की फिल्म को केंद्रीय सेंसर बोर्ड ने पास किया है। अदालतों में भी इसे लेकर कोई रोक नहीं लगी। सामान्य नियमों के अनुसार, जब कोई फिल्म कानूनी जांच और सेंसर की कसौटी पर खरी उतर जाए, तो उसके प्रदर्शन पर रोक नहीं लगाई जा सकती। लेकिन बंगाल में वास्तविकता कुछ और है। सिनेमा मालिकों को धमकाकर फिल्म का प्रदर्शन रोका गया। यह स्थिति बताती है कि बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का अपना ‘समानांतर सेंसर बोर्ड’ चल रहा है, जो संविधान से ऊपर खुद को मान रहा है।
राजनीतिक एंगल : सेंसरशिप से वोट बैंक तक
बंगाल फाइल्स का विरोध केवल कलात्मक या ऐतिहासिक पहलू से नहीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण से किया जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस नहीं चाहती कि राज्य के मुस्लिम वोट बैंक में कोई बेचैनी पैदा हो। फिल्म जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन और मुस्लिम लीग की भूमिका को खुलकर दिखाती है। तृणमूल को लगता है कि इससे उनकी अल्पसंख्यक राजनीति प्रभावित हो सकती है।
दूसरी ओर, भाजपा इस फिल्म को एक अवसर मान रही है। उसे लगता है कि जिस तरह द कश्मीर फाइल्स ने राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विमर्श को बदला, उसी तरह बंगाल फाइल्स भी जनता में नई बहस छेड़ सकती है।

क्या चाहिए था विरोधियों को
फिल्म का विरोध करने वाले केवल तृणमूल तक सीमित नहीं हैं। सेक्युलर-लिबरल तबका भी इस पर आपत्ति जता रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि वे चाहते क्या हैं…क्या वे यह चाहते हैं कि निर्देशक फिल्म उनके हिसाब से बनाए? क्या इतिहास का चित्रण भी उनकी कथा-पटकथा से गुजरे?
यदि किसी को फिल्म की विषयवस्तु पसंद नहीं है, तो उसके पास विकल्प हैं—
- फिल्म न देखें।
- इसे आलोचनात्मक समीक्षा दें।
- इसका अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करें।
लेकिन फिल्म पर रोक लगाने या लोगों को धमकाने का तरीका लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि असहिष्णुता का प्रमाण है।
समानांतर सेंसर बोर्ड की राजनीति
यह पहली बार नहीं है जब राजनीतिक दलों ने फिल्मों को निशाना बनाया हो। राजस्थान में करणी सेना ने पद्मावत का विरोध किया था। महाराष्ट्र में शिवसेना ने कई फिल्मों को लेकर हंगामा किया। लेकिन बंगाल की स्थिति अलग है। यहां राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी खुद ही सेंसर की भूमिका निभा रही है। यह सवाल खड़ा होता है कि जो पार्टी हर मंच पर संविधान की रक्षा का दावा करती है, वही पार्टी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने में क्यों लगी है? क्या तृणमूल कांग्रेस संविधान को अपने हिसाब से लागू करना चाहती है?
चुनावी संदर्भ और फिल्म की गूंज
पश्चिम बंगाल में आने वाले वर्षों में चुनावी माहौल गर्म रहने वाला है। भाजपा लगातार राज्य में अपनी जड़ें मजबूत कर रही है। ऐसे में बंगाल फाइल्स जैसी फिल्म राजनीतिक हथियार बन सकती है। भाजपा इसे तृणमूल की असहिष्णुता और वोट बैंक की राजनीति के उदाहरण के रूप में पेश करेगी। तृणमूल इसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश बताकर खारिज करने की कोशिश करेगी। कांग्रेस और वाम दल असमंजस की स्थिति में रहेंगे, क्योंकि न तो वे तृणमूल का साथ खुले तौर पर देना चाहेंगे और न ही भाजपा की लाइन पर चलना।
इतिहास को नकारने का प्रयास
कलकत्ता किलिंग और नोआखाली की हिंसा इतिहास के पन्नों में दर्ज है। गांधीजी खुद नोआखाली गए थे। कई किताबें, डाक्यूमेंट्री और अकादमिक रिसर्च इस पर उपलब्ध हैं। ऐसे में फिल्म पर रोक लगाने की कोशिशें यह संकेत देती हैं कि कुछ ताकतें इतिहास को जनता से छिपाना चाहती हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या इतिहास को दबाकर कोई राजनीतिक दल खुद को सुरक्षित कर सकता है? या फिर जनता सच जानने के और भी रास्ते खोज लेगी?
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक सुविधा
- भारतीय संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। कला और सिनेमा इस स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण साधन हैं। यदि हर फिल्म को राजनीतिक दलों की अनुमति के बाद ही दिखाना होगा, तो यह स्वतंत्रता का मजाक होगा।
- फिल्मों पर रोक लगाने की प्रवृत्ति लोकतंत्र को कमजोर करती है। चाहे वह करणी सेना का विरोध हो या तृणमूल का अघोषित प्रतिबंध—दोनों ही स्थिति में लोकतंत्र की बुनियादी भावना आहत होती है।
जनता का नजरिया
सोशल मीडिया पर फिल्म को लेकर बहस छिड़ी हुई है। बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि उन्हें यह तय करने दिया जाना चाहिए कि फिल्म अच्छी है या बुरी। आलोचक कह रहे हैं कि फिल्म में अतिरंजना है, तो समर्थक कह रहे हैं कि यह वह सच है जिसे दबाया गया। लेकिन अधिकांश दर्शक इस बात से सहमत हैं कि फिल्म पर पाबंदी लगाने का तरीका गलत है। लोगों के पास विकल्प होना चाहिए—देखें या न देखें।
इस तरह से देखा जाए तो बंगाल फाइल्स विवाद केवल एक फिल्म का विवाद नहीं है। यह लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनीति के टकराव का प्रतीक है। तृणमूल कांग्रेस का अघोषित प्रतिबंध यह दिखाता है कि राज्य में एक तरह से समानांतर सेंसर बोर्ड चल रहा है। इतिहास की घटनाओं पर आधारित फिल्में असहमति पैदा कर सकती हैं, लेकिन उन्हें रोकने का तरीका लोकतंत्र नहीं सिखाता। राजनीतिक दलों के लिए यह जरूरी है कि वे जनता को परिपक्व मानें और उनके फैसले पर भरोसा करें।
आज सवाल यह है कि क्या राजनीति इतिहास को नियंत्रित करेगी, या फिर इतिहास राजनीति को आईना दिखाएगा? बंगाल फाइल्स का विवाद यही संकेत देता है कि सिनेमा केवल कला नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श का भी बड़ा हथियार है।

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