
अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। 8 अगस्त 1942 को देश ने वह निर्णायक पुकार सुनी, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी—“भारत छोड़ो।” महात्मा गांधी के नेतृत्व में चला यह आंदोलन केवल एक राजनीतिक अभियान नहीं था, बल्कि सदियों से जकड़ी हुई गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का सामूहिक संकल्प था। आज इस क्रांतिकारी घटना को 83 वर्ष पूरे हो रहे हैं।
पृष्ठभूमि और कारण
सन् 1942 में विश्व युद्ध अपने चरम पर था। पश्चिम में युद्ध की आग भड़क रही थी और पूर्व में जापानी सेना तेजी से भारत की ओर बढ़ रही थी। इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने भारत को युद्ध में समर्थन के बदले ‘डोमिनियन स्टेटस’ देने का प्रस्ताव रखा। सर स्टैफोर्ड क्रिप्स इसी संदेश के साथ भारत आए, लेकिन कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर दिया। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे वीरों ने अपनी शहादत किसी अधूरी आजादी के लिए नहीं दी थी—देश की मांग थी ‘पूर्ण स्वराज।’

आंदोलन का शंखनाद
7-8 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान (आज का अगस्त क्रांति मैदान) में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का अधिवेशन हुआ। महात्मा गांधी ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा—“करो या मरो। हम या तो भारत को आजाद कराएंगे या कोशिश करते हुए प्राण दे देंगे।” इस घोषणा के बाद अरुणा आसफ अली ने तिरंगा फहराया और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की औपचारिक शुरुआत हो गई।
नेताओं की गिरफ्तारी और जनउभार
आंदोलन की घोषणा के 24 घंटे के भीतर गांधी, नेहरू, पटेल समेत सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। नेतृत्व के अभाव में भी जनता सड़कों पर उतर आई। जगह-जगह हड़तालें, प्रदर्शन और सरकारी संस्थानों पर तिरंगा फहराने की घटनाएं हुईं। कई स्थानों पर समानांतर सरकारें बनीं।
महिलाओं की अभूतपूर्व भागीदारी
यह आंदोलन महिलाओं की व्यापक भागीदारी के लिए भी याद किया जाता है। मातंगिनी हाजरा ने हजारों महिलाओं के जुलूस का नेतृत्व करते हुए पुलिस की गोलियों से प्राण न्योछावर किए, उनके हाथों में तिरंगा था। सुचेता कृपलानी, नंदिनी देवी, शशिबाला देवी, कनकलता बरुआ जैसी महिलाएं इस संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में रहीं।
युवाओं का बलिदान
पटना में सात युवा शांतिपूर्वक सचिवालय पर तिरंगा फहराने निकले, लेकिन पुलिस की गोली से शहीद हो गए। यह घटना आंदोलन की उस ज्वाला का प्रतीक बनी, जो डर और निराशा से परे थी।

परिणाम और ऐतिहासिक महत्व
युद्धकालीन कठोर दमन के बावजूद, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ ने स्वतंत्रता संघर्ष को निर्णायक मोड़ दिया। 1944 तक ब्रिटिश सरकार इसे दबाने में सफल रही, लेकिन अंतरराष्ट्रीय हालात और भारत के भीतर उबाल ने स्पष्ट कर दिया कि अब स्वतंत्रता को टाला नहीं जा सकता।
महात्मा गांधी के शब्द आज भी गूंजते हैं—“जब सत्ता आएगी, वह भारत के लोगों की होगी, और वही तय करेंगे कि इसे किसे सौंपा जाए।”
यह आंदोलन न केवल आजादी की रफ्तार तेज करने वाला साबित हुआ, बल्कि इसने आने वाले भारत की राजनीतिक और सामाजिक दिशा भी तय कर दी।

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