
त्योहारों के मौसम में बिहार की राजनीति इस समय अपने चरम पर है। अति-सचेष्ट बिहारियों के लिए राजनीति किसी शगल से कम नहीं। आगामी विधानसभा चुनाव ने पूरे सूबे को चुनावी रसगंगा में डुबो दिया है, जहां हर चर्चा का केंद्र केवल सियासत है। यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होने जा रहा है, जहां नीतीश कुमार की चुनावी सफलता की ‘पहेली’, तेजस्वी यादव का मजबूत उभार, और प्रशांत किशोर की अप्रत्याशित एंट्री ने सियासी सनसनी को दोगुना कर दिया है।
नीतीश कुमार: ‘जादुई कुंजी’ क्यों?
पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति में यह एक स्थापित कहावत बन गई है कि नीतीश कुमार जिसके साथ होंगे, जीत उसी की होगी। यही कारण है कि भाजपा अपनी आदत के विपरीत यहां “छोटे भाई” की भूमिका स्वीकार करती रही है, और लालू प्रसाद यादव भी विरोध की कटुता के बावजूद उनके साथ के लिए लालायित रहते हैं। भाजपा नेताओं ने 2017 में अलग होने के बाद कसम खाई थी कि अब नीतीश के साथ कभी नहीं जाएंगे, लेकिन वे तीसरी बार अपने इस “स्वाभाविक सहयोगी” के साथ चुनाव लड़ रहे हैं।
नीतीश कुमार के चुनावी जीत की कुंजी बनने के पीछे 2005 का वह दौर है, जब उन्हें कानून-व्यवस्था की दयनीय स्थिति, खाली खजाना, टूटे इन्फ्रास्ट्रक्चर और देश में सबसे कम साक्षरता दर (47.53%) वाला बिहार मिला था। मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने: कानून-व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जबरदस्त ध्यान दिया।
शिक्षा पर काम किया, जिसके तहत 2006 में ‘स्कूल चलो अभियान’ के तहत किशोरियों को निःशुल्क साइकिल देने का काम शुरू किया, जिसने एक मौन क्रांति ला दी। 2005 में जहां 10वीं की परीक्षा में 1.8 लाख लड़कियां शामिल हुई थीं, वहीं आज 15.85 लाख परीक्षार्थियों में आधी से अधिक बच्चियां हैं।

महिला सशक्तिकरण के कारण सरकारी कार्यालयों में महिलाओं की बड़ी तादाद दिखती है, जिसके चलते हर वर्ग की महिलाएं नीतीश कुमार का साथ नहीं छोड़तीं।
हालांकि, उनका तीसरा और चौथा कार्यकाल पहले जितना कारगर साबित नहीं हुआ। पलायन का मुद्दा यथावत है और तमाम जरूरी मानकों पर बिहार अभी भी निचले पायदानों पर अटका है। पार्टी (जदयू) की कमजोरी यह है कि समर्पित कार्यकर्ताओं की तादाद घट रही है, जिससे उसे चुनाव लड़ने के लिए राजद या भाजपा के सदस्य समूहों पर निर्भर रहना पड़ता है। पिछले चुनाव में सिर्फ 43 सीटें जीतने के बाद, नीतीश सरकार ने जून से अब तक एक करोड़ महिलाओं के खाते में ₹10,000 डालने सहित हर वर्ग पर रियायतों और इनायतों की बौछार की है। सवाल यह है कि क्या ये चुनावी सौगातें गठबंधन की नैया पार लगा पाएंगी?
तेजस्वी यादव का युवा उभार और विपक्षी एकजुटता
नीतीश के मुख्य विरोधी तेजस्वी यादव ने पिछले चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन किया था, जहां महागठबंधन सिर्फ 16,825 मतों से पिछड़ा था। तेजस्वी को सभी वर्गों के युवाओं का समर्थन मिला था।
इस बार भी उन्हें कांग्रेस और वाम दलों का समर्थन हासिल है। कमजोर जनाधार के बावजूद राहुल गांधी ने उनके साथ रोड-शो करके उन्हें मजबूती दी है। इसके अलावा, वाम घड़े के दीपांकर भट्टाचार्य, सपा के अखिलेश यादव, शिव सेना के संजय राउत, डीएमके के एमके स्टालिन, झामुमो के हेमंत सोरेन, तृणमूल के यूसुफ पठान भी अप्रत्यक्ष तौर पर संदेश दे रहे थे कि देश का समूचा विपक्ष तेजस्वी के साथ खड़ा है।
तेजस्वी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सहयोगियों और परिवारीजनों की अति-महत्वाकांक्षा को काबू में रखना है, हालांकि महागठबंधन के एकजुट होकर चुनाव लड़ने में कोई संदेह नहीं है।
सियासी सनसनी: मतदाता सूची और प्रशांत किशोर
इस चुनाव में सियासी सनसनी को दोगुना करने वाले दो प्रमुख कारक हैं:–
मतदाता सूची पर विवाद: चुनाव आयोग ने हाल ही में जो अंतिम मतदाता सूची जारी की है, उसमें 65 लाख नाम हटाए गए हैं और 21.5 लाख नए नाम जोड़े गए हैं। महागठबंधन महीनों से इस एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) को मुद्दा बनाए हुए है।
प्रशांत किशोर की एंट्री: चुनाव प्रबंधन के पेशेवर के रूप में जाने जाने वाले प्रशांत किशोर (जिन्होंने मोदी, कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके और स्वयं नीतीश को चुनाव जितवाया है) एक साल से अधिक समय तक बिहार में सघन ‘पद-यात्रा’ कर चुके हैं। उनकी सभाओं में जबरदस्त भीड़ हो रही है। वह नीतीश, लालू और भाजपा, सभी को एक साथ घेरते हैं। सवाल है कि क्या वह सरकार बनाने या त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में वैसाखी बनने का गौरव हासिल कर सकेंगे?

भाजपा और एनडीए का जातीय समीकरण
भाजपा इस चुनाव में सबसे सबल संगठन और जातीय समीकरणों पर निर्भर है। एनडीए गठबंधन में चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे जातीय नेता शामिल हैं, जो जदयू के साथ मिलकर एक ताकतवर गठबंधन बनाते हैं।
हालांकि, भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी सर्वमान्य चेहरे का अभाव है। पिछली बार जदयू से लगभग दोगुनी सीटें जीतने के बावजूद वह अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी थी। भाजपा को आज नहीं तो कल इस संबंध में कठोर निर्णय करने होंगे और इसके लिए उसे अपने सहयोगियों और पुराने कार्यकर्ताओं से भी “रार” लेनी पड़ सकती है। पुरानी कहावत है कि शिकार के लिए निर्णायक छलांग से पहले शेर अपने ताकतवर जिस्म को सिकोड़ता है। क्या भाजपा यही कर रही है?

बिहार में इस बार बहुत दिनों बाद ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जहां परिणाम आने के बाद ही असली गुल खिलेंगे, क्योंकि मतदाता एसआईआर के मुद्दे, एनडीए के जातीय समीकरण और चुनावी सौगातों में से किसे प्राथमिकता देगा, यह एक बड़ी पहेली है।

राजनीति में विरोधी खेमे को खोदने और चिढ़ाने वाली खबरों को अलग महत्व होता है। इसके लिए नारद बाबा अपना कालम लिखेंगे, जिसमें दी जाने वाली जानकारी आपको हंसने हंसाने के साथ साथ थोड़ा सा अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर करेगी। 2 दशक से पत्रकारिता में हाथ आजमाने के बाद अब नए तेवर और कलेवर में आ रहे हैं हम भी…..



