
तेलंगाना में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) के 10 विधायकों की अयोग्यता के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने गुरुवार को तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वे इन विधायकों की अयोग्यता पर तीन महीने के भीतर निर्णय लें।
यह आदेश बीआरएस की उस याचिका के बाद आया है जिसमें आरोप लगाया गया था कि स्पीकर जानबूझकर मामले को लंबित रख रहे हैं, जिससे “लोकतंत्र की भावना” को ठेस पहुंच रही है।
सुप्रीम कोर्ट की दो टूक टिप्पणी: “लोकतंत्र की नींव को कमजोर न करें”
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘दल-बदल’ का मुद्दा पूरे देश में चिंता का विषय बन चुका है और यदि समय रहते इस पर कार्रवाई नहीं की गई तो इससे लोकतंत्र की नींव कमजोर हो सकती है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान में स्पीकर को यह अधिकार इसलिए दिया गया कि वे अयोग्यता के मामलों पर जल्द निर्णय ले सकें और ये मामले वर्षों तक अदालतों में न अटके रहें। अदालत ने संसद में राजेश पायलट और देवेंद्रनाथ मुंशी जैसे नेताओं के पुराने भाषणों का हवाला देकर इस व्यवस्था के महत्व को रेखांकित किया।
स्पीकर की निष्क्रियता पर जताई चिंता
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष ने महीनों तक कोई निर्णय नहीं लिया, जबकि अयोग्यता याचिकाएं स्पष्ट रूप से दाखिल की गई थीं। अदालत ने कहा कि ऐसी निष्क्रियता से जनप्रतिनिधित्व कानून और संविधान की दसवीं अनुसूची (जो दल-बदल से संबंधित है) की भावना कमजोर होती है।
हाईकोर्ट का आदेश रद्द, तीन महीने की समयसीमा तय
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तेलंगाना हाईकोर्ट की खंडपीठ के आदेश को रद्द करते हुए निर्देश दिया कि अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर यथाशीघ्र कार्यवाही की जाए और अधिकतम तीन महीनों में निर्णय लिया जाए।
यह आदेश सीधे उन विधायकों पर लागू होता है जिन्होंने बीआरएस छोड़कर कांग्रेस पार्टी जॉइन की थी, जिससे बीआरएस के नेताओं और कार्यकर्ताओं में भारी असंतोष देखा गया।
याचिकाकर्ता थे बीआरएस नेता केटी रामाराव और अन्य
यह याचिका बीआरएस के वरिष्ठ नेता और पार्टी प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के बेटे केटी रामाराव, पाडी कौशिक रेड्डी, और केपी विवेकानंद ने दाखिल की थी। याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि जब दस विधायकों ने पार्टी छोड़ दी, तो विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी अयोग्यता पर कोई निर्णय नहीं लिया, जिससे असंवैधानिक स्थिति बन गई है।
राजनीतिक और संवैधानिक महत्व
यह मामला सिर्फ तेलंगाना तक सीमित नहीं है, बल्कि देशभर की विधानसभाओं और संसद के लिए एक नजीर बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश आने वाले दिनों में अन्य राज्यों में लंबित दल-बदल मामलों पर भी असर डाल सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस हस्तक्षेप से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ है कि संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए न्यायपालिका को आगे आना पड़ता है। अब देखना होगा कि तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष इस आदेश का पालन कैसे करते हैं और क्या अयोग्य विधायकों के खिलाफ समयबद्ध कार्रवाई होती है या नहीं।

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