
मशहूर कहावत है, “जो भी मापा जाता है, उसका प्रबंधन मुमकिन है।” यह सूक्ति दुनिया भर में शिक्षा, नौकरी और मूल्यांकन के क्षेत्रों में चरितार्थ होती है। हालांकि, भारत में इन क्षेत्रों में अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएँ, विशेषकर प्रतियोगी परीक्षाओं में, प्रतिभागियों की तैयारी, प्रदर्शन और मूल्यांकन के तरीकों पर गहरा असर डालती हैं। विडंबना यह है कि प्रबंधन सलाहकार भले ही ‘मापने योग्य’ कौशल पर ज़ोर देते हों, लेकिन शायद ही कभी इस बात पर विचार किया जाता है कि जिस तरह से प्रतिभागियों की कुशलता का परीक्षण किया जा रहा है, क्या वह सही तरीका है?
प्रबंधन प्रवेश परीक्षा: क्या गति ही सर्वोच्च कौशल है?
कॉमन एडमिशन टेस्ट (CAT) जैसी प्रबंधन संस्थानों में प्रवेश परीक्षाओं में मुख्य रूप से दो बातों की जाँच की जाती है: अंग्रेजी की समझ और गणित व समस्याओं का तार्किक ढंग से समाधान करने की योग्यता।
इनमें भी, गणित और तर्कशक्ति परीक्षण में यह देखा जाता है कि प्रतिभागी समस्या का हल कितनी तेजी से कर सकता है। यह अनिवार्य रूप से ‘आईक्यू’ का ही परीक्षण है, जिसे प्रबंधन के क्षेत्र में सर्वोच्च कौशल मान लिया जाता है।
लेकिन, यहाँ सवाल यह है कि क्या तेज गति से काम करना ही सबसे अहम है? हर जगह नहीं। कई बड़े उद्यमियों ने तो कभी कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं की। धीरूभाई अंबानी और रिचर्ड ब्रैनसन जैसी हस्तियों ने कभी कॉलेज नहीं गए। पेटीएम के विजय शेखर शर्मा से लेकर ओयो के रितेश अग्रवाल तक, कई सफल उद्यमियों ने कभी प्रबंधन की औपचारिक शिक्षा नहीं ली। यह दर्शाता है कि प्रबंधन में सफलता केवल समय-आधारित आईक्यू परीक्षण पर निर्भर नहीं करती।
यूपीएससी: सामान्य ज्ञान और रटने की बेतुकी प्रणाली
संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित परीक्षाओं का हाल भी कुछ ऐसा ही है। इसके आभामंडल और इसकी हैसियत को परे रखकर देखें, तो पाएंगे कि इसकी पूरी प्रणाली बेतुकी है। इसकी परीक्षाएं प्रतिभागियों से इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान की जानकारियों को कंठस्थ रखने की अपेक्षा करती हैं, और साथ ही कुछ विश्लेषणात्मक कौशल का परीक्षण करती हैं।
इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये परीक्षाएं अनेक तरह की विशेषज्ञता वाली नौकरियों—जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS), भारतीय विदेश सेवा (IFS) और भारतीय राजस्व सेवा (IRS) —के लिए एक ही तरीके से भर्तियाँ करती हैं।
सफल प्रतिभागी किस सेवा में जाएंगे, यह केवल परीक्षा में उनकी रैंक पर निर्भर करता है। इससे विचित्र विसंगतियां पैदा होती हैं:
साहित्यिक पृष्ठभूमि और रुचि का कोई व्यक्ति राजस्व सेवा में जा सकता है, जहाँ उसे कर नीतियों की जटिलताओं या लेखा सेवा के आँकड़ों से जूझना होगा।
इसी तरह, समाज का व्यावहारिक ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति पुलिस सेवा में अधिकारी बन सकता है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) को नौकरशाही की रीढ़ माना जाता है, लेकिन जब इसके अधिकारी अक्सर नई-नई सेवाओं में भेजे जाते हैं, तो यह मुख्य रूप से सत्ता का खेल बन जाता है, जिसके लिए न तो विशिष्ट कौशल, न ही ज्ञान, और न ही विषय-वस्तु की गहरी जानकारी आवश्यक होती है।
कुछ सर्वेक्षणों में आईएएस अधिकारियों ने खुद स्वीकार किया है कि वे अक्सर कौशल की कमी के कारण खुद को असहज महसूस करते हैं।
वैश्विक मंच पर विशेषज्ञता का अभाव
दुनिया के अन्य देशों में विशेषज्ञता को प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण के लिए:
अमेरिका में, आंतरिक राजस्व सेवा या विदेश विभाग जैसी संघीय एजेंसियाँ उसी क्षेत्र में अनुभव व रुचि रखने वाले उम्मीदवारों में से चयन करती हैं। कर अधिकारियों में लेखा-जोखा की क्षमता और विदेश सेवा के लिए कूटनीतिक योग्यता को विशेष रूप से परखा जाता है।
अपनी दक्षता के लिए प्रसिद्ध सिंगापुर की सिविल सेवा योग्यता परीक्षणों, साक्षात्कारों और संबंधित क्षेत्र में भूमिका के आधार पर मूल्यांकन करती है।
वैश्विक मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों ने यह बताया है कि भारतीय अधिकारी अक्सर कम सक्षम होते हैं, क्योंकि उनके पास संबंधित क्षेत्र की विशेषज्ञता का अभाव होता है।
औपनिवेशिक विरासत का बोझ
भारतीयों को वफादार प्रशासक बनाने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय सिविल सेवा को डिजाइन किया था, न कि विशेषज्ञों को तैयार करने के लिए। औपनिवेशिक काल की इन प्रथाओं पर आधारित भारत की वर्तमान सेवा प्रणाली आज भी कौशल के बजाय रटने और सामान्य ज्ञान को प्राथमिकता देती है। UPSC की परीक्षाएं इसी विरासत का बोझ ढो रही हैं, जिससे देश को विशेषज्ञता और दक्ष अधिकारियों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। यह समय की माँग है कि हम इस पुरानी प्रणाली की ईमानदारी से समीक्षा करें और एक ऐसी मूल्यांकन प्रणाली अपनाएं जो रटने की बजाय वास्तविक कौशल और विशेषज्ञता को प्राथमिकता दे।

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