
आज विश्व मृत्युदंड निषेध दिवस है। 2003 में विश्व मृत्युदंड निषेध गठबंधन द्वारा शुरू किया गया यह दिवस मृत्युदंड के उन्मूलन और मृत्युदंड प्राप्त कैदियों की दशा सुधारने पर गौर करने का आह्वान करता है। यह दिवस एक बार फिर उस मौलिक बहस को हवा देता है कि क्या राज्य को किसी व्यक्ति के जीवन लेने का अधिकार है, भले ही वह सबसे क्रूर अपराधी क्यों न हो।
भारत में, मृत्युदंड (फाँसी की सज़ा) केवल “अत्यंत दुर्लभ मामलों” में ही दी जाती है। यह एक ऐसी कानूनी सज़ा है जो गंभीर अपराधों के लिए व्यक्ति को जीवन से वंचित कर देती है। इस मुद्दे पर तर्क दो खेमों में बंटे हुए हैं: एक ओर जहाँ मनुष्य के जीने के नैसर्गिक अधिकार की बात है, वहीं दूसरी ओर कानून का भय और नागरिकों की सुरक्षा की दलीलें इसे तर्कसंगत ठहराती हैं।
मृत्युदंड के विरोध में तर्क: त्रुटिपूर्ण न्याय और निर्दोष की जान
मृत्युदंड के ख़िलाफ़ सबसे आम और ठोस तर्क न्याय प्रणाली की त्रुटियों से उपजा है। यह माना जाता है कि चूँकि मानव न्याय त्रुटिपूर्ण है—गवाह, अभियोजक और जूरी सदस्य सभी गलतियाँ कर सकते हैं—इसलिए निर्दोष लोग भी सज़ा पा सकते हैं।
अपरिवर्तनीयता: किसी की जान लौटाना संभव नहीं है। मृत्युदंड राज्य द्वारा हिंसा के एक अपरिवर्तनीय कृत्य को वैधता देता है। जब तक मानव न्याय त्रुटिपूर्ण बना रहेगा, निर्दोषों को फाँसी देने का जोखिम कभी समाप्त नहीं हो सकता।

पर्याप्त प्रमाण: इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि गलतियाँ संभव हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में 1973 से अब तक मृत्युदंड की सज़ा पाए 130 लोगों को निर्दोष पाया गया है और उन्हें सज़ा से मुक्त किया गया। बरी होने से पहले उन्होंने औसतन 11 वर्ष मृत्युदंड की सज़ा पर बिताए।
क्रूरता को बढ़ावा: आँकड़े बताते हैं कि मृत्युदंड समाज में क्रूरता को ही बढ़ावा देता है और हत्या की दर में वृद्धि करता है। 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के उन राज्यों में हत्या की दर अधिक थी, जहाँ मृत्युदंड की अनुमति थी (प्रति 1,00,000 पर 5% की दर), जबकि जिन राज्यों में यह समाप्त कर दिया गया था, वहाँ यह दर 4.01% थी।
मृत्युदंड के विरोधी मानते हैं कि मानव जीवन इतना मूल्यवान है कि एक हत्यारे को भी उसके जीवन से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। उनका मानना है कि हम एक “न्यायिक हत्या” के ज़रिए दूसरों को यह नहीं सिखा सकते कि हत्या करना गलत है, और अपराधी के दोषों का मूल्य उसके क्रूर आचरण से नष्ट नहीं हो सकता।
मृत्युदंड के पक्ष में तर्क: निवारण, प्रतिशोध और सामाजिक भलाई
इसके विपरीत, मृत्युदंड के पक्षधर मानते हैं कि यदि हमें अपने समाज को सभ्य वातावरण में रखना है, तो अपराधों के लिए उचित दंड की व्यवस्था बनाए रखनी होगी। ऐसे अपराधियों को, जो अत्यंत क्रूर हैं और जिनमें सुधार के कोई लक्षण नहीं हैं, मौत की सज़ा देनी ही चाहिए।
अपराधों की रोकथाम (निवारण): मृत्युदंड का भय लोगों को जघन्य अपराध करने से रोकता है, जिससे अपराधों में कमी आती है।
न्याय और प्रतिशोध: यह तर्क दिया जाता है कि अपराधी ने जो जघन्य अपराध किया है, वह मृत्युदंड का भागी है, और न्याय सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है। यदि कोई अपराधी बिना कारण, धोखे से, या बलात्कार के साथ हत्या करता है, तो उसे मृत्युदंड देना उचित है।

नागरिकों की सुरक्षा: राज्य का यह नैतिक दायित्व है कि वह अपने नागरिकों की रक्षा करे, और मृत्युदंड सामाजिक सुरक्षा और नागरिकों का विश्वास बनाए रखने का एक साधन है।
सामाजिक भलाई: विचारक अरस्तू के अनुसार, एक बुरा आदमी एक जानवर से भी बदतर और अधिक हानिकारक होता है। विचारक थॉमस एक्विनास का भी मत था कि कुछ संदर्भ एक बुरे कार्य (हत्या) को एक अच्छे कार्य (उस व्यक्ति की हत्या करना, जिसने हत्या करके अपनी प्राकृतिक योग्यता खो दी है) में बदल देते हैं। इस तर्क के तहत, यदि कोई व्यक्ति समुदाय के लिए खतरनाक है और उसे नष्ट कर रहा है, तो सामाजिक भलाई को बनाए रखने के लिए मृत्युदंड दिया जाना चाहिए।
पक्षधरों का मानना है कि अपराधी ने जब किसी की जान ली, तो उसने अपने जीवन के अधिकार को खो दिया, और न्याय को पुनः स्थापित करने के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था को बनाए रखना आवश्यक है।
आज विश्व मृत्युदंड निषेध दिवस पर, बहस का केंद्र यही है कि क्या हम क्रूर अपराधों के लिए प्रतिशोध और निवारण के साधन के रूप में फाँसी की सज़ा को बनाए रखें, या निर्दोषों के मारे जाने के जोखिम को समाप्त करने के लिए जीवन के नैसर्गिक अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दें।

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