
हाल ही में विश्व बैंक ने भारत को दुनिया का चौथा सबसे अधिक समानता वाला देश बताया है। सरकारें इस दावे को बार-बार दोहरा रही हैं, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। असल में, भारत में असमानता का स्तर काफी ऊँचा है, और हमें इस बात का गंभीरता से आकलन करना होगा कि यह असमानता हमारे विकास और लोकतंत्र के लिए किस हद तक खतरा बन सकती है। यह अब बहस का मुद्दा नहीं, बल्कि एक गंभीर चुनौती है, जिसे समय रहते समझना और सुलझाना जरूरी है।
असमानता बनाम गरीबी: एक नई बहस
भारत में असमानता पर बहस ऐतिहासिक रूप से गरीबी पर केंद्रित रही है। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि आजादी के बाद से देश में एक बड़ी आबादी गरीब थी। मगर पिछले कुछ दशकों में प्रति व्यक्ति आय और विकास में वृद्धि होने से गरीबी की व्यापकता पहले जितनी नहीं रही। इसी के साथ, यह भी प्रमाणित हुआ है कि पिछले तीन दशकों में असमानता सभी आयामों में बढ़ी है। हालाँकि, उपभोग संबंधी असमानता के तुलनात्मक आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण इसके स्तर का ठीक-ठीक आकलन करना मुश्किल है, लेकिन आय के आधार पर विश्व बैंक द्वारा तैयार किए गए अनुमान भारत को उच्च असमानता वाले देशों में शामिल करते हैं। ये आंकड़े न केवल असमानता की ऊंची दर दिखाते हैं, बल्कि इसमें हो रही निरंतर बढ़ोतरी का भी संकेत देते हैं। संपत्ति के आंकड़े भी इसी निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं।
क्षैतिज असमानता: एक अनदेखी चुनौती
एक और गंभीर समस्या ‘क्षैतिज असमानता’ की है। यह असमानता व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि साझा पहचान वाले समूहों के बीच पाई जाती है, जैसे कि जाति, धर्म, आयु, लिंग, वर्ग और क्षेत्र पर आधारित असमानताएँ। जबकि ज्यादातर असमानताएँ आय और संपत्ति में अंतर को मापती हैं, क्षैतिज असमानताएँ एक ही पीढ़ी के भीतर संसाधनों तक पहुँच और बेहतर जीवनशैली के अवसरों में अंतर से निर्धारित होती हैं। इनमें से अधिकांश असमानताएँ ढाँचागत और ऐतिहासिक हैं, जो सामाजिक न्याय और स्थिरता से गहराई से जुड़ी हैं।

जब आर्थिक विकास का लाभ सभी सामाजिक समूहों तक समान रूप से नहीं पहुँचता, तो यह अलगाव पैदा करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं से कुछ समूहों की दूरी उनकी तरक्की में सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। इन क्षेत्रों में भारत की प्रगति, आर्थिक विकास की तुलना में काफी धीमी रही है। मानव विकास के जो मामूली लाभ मिले भी हैं, वे भी सभी समूहों में समान रूप से नहीं बँट पाए हैं। हाशिये पर रहने वाले अधिकांश समूहों को बुनियादी स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के मामले में लगातार नुकसान झेलना पड़ा है। इस मामले में राज्यों के बीच भी भारी अंतर है, जहाँ बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा जैसे विपन्न राज्यों और पश्चिम व दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों के बीच खाई लगातार बढ़ रही है।
सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता पर खतरा
भारत की विकास-प्रक्रिया इन असमानताओं को कम करने में नाकाम रही है, और यह काम पूरी तरह से राज्य पर छोड़ दिया गया है। हाल के दशकों में, ये असमानताएँ न केवल आर्थिक विकास के लिए, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी एक बड़ा खतरा बनती दिख रही हैं। महाराष्ट्र के मराठों, गुजरात के पटेलों और उत्तर प्रदेश व हरियाणा के जाटों जैसे समूहों ने हाल में जो किसान और आरक्षण आंदोलन किए हैं, वे इसी सामाजिक अस्थिरता का संकेत हैं। इन आंदोलनों ने राज्य सरकारों की नौकरियों और उच्च शिक्षा में स्थानीय आरक्षण जैसी विकृत प्रवृत्तियों को भी बढ़ावा दिया है, जो समस्याओं को सुलझाने के बजाय और जटिल बना रही हैं।
हालाँकि, भारत में अभी तक हालात राजनीतिक अस्थिरता तक नहीं पहुँचे हैं, लेकिन नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया और थाईलैंड जैसे पड़ोसी देशों में हाल के विरोध-प्रदर्शनों से हमें सबक लेना चाहिए। इन देशों में भी आर्थिक वृद्धि के बावजूद असमानता और बेरोजगारी बढ़ी, जिससे सामाजिक अशांति पैदा हुई। भारत में भी आर्थिक वृद्धि के बावजूद बेरोजगारी अधिक है और वास्तविक आय स्थिर बनी हुई है। विभिन्न क्षेत्रों और समूहों के बीच बढ़ती असमानता ने वंचित समूहों में अलगाव की भावना को गहरा कर दिया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि शिक्षा और रोजगार तक उनकी पहुँच समान नहीं है।

आगे का रास्ता: समावेशी विकास
इस गंभीर समस्या का समाधान केवल आर्थिक विकास से नहीं होगा। इसके लिए देश के विकास को व्यापक और समावेशी बनाना होगा। केवल आर्थिक विकास के लिए नहीं, बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी असमानताओं का निदान आवश्यक है। यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास का लाभ समाज के हर तबके तक पहुँचे, ताकि कोई भी समूह खुद को अलग-थलग महसूस न करे।
सरकार को केवल आँकड़ों को दोहराने के बजाय, इस बढ़ती हुई असमानता की प्रकृति को समझना होगा और इसे कम करने के लिए प्रभावी नीतियाँ बनानी होंगी। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित करना शामिल है। जब तक विकास की रफ्तार असमानता के बोझ से मुक्त नहीं होगी, तब तक एक मजबूत और न्यायपूर्ण राष्ट्र का निर्माण एक अधूरा सपना ही रहेगा।

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