
19 अगस्त का दिन बिहार की राजनीति के एक ऐसे दिग्गज को याद करने का है, जिन्होंने एक शिक्षक से लेकर राज्य के सर्वोच्च पद तक का सफर तय किया। डॉ. जगन्नाथ मिश्रा, एक ऐसा नाम जो बिहार की सियासी गलियों में आज भी गूंजता है। 24 जून 1937 को सुपौल के बलुआ बाजार में जन्मे इस मिथिला के सपूत ने न सिर्फ बिहार की राजनीति को एक नई दिशा दी, बल्कि सामाजिक सुधारों और मैथिल संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भी याद किए जाते हैं। तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे मिश्रा का जीवन उपलब्धियों, विवादों और सियासी उतार-चढ़ाव की एक ऐसी दास्तान है, जो बिहार के राजनीतिक इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगी।
जगन्नाथ मिश्रा की यात्रा एक शिक्षाविद् और अर्थशास्त्री के रूप में शुरू हुई। बिहार विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के तौर पर अपने करियर की शुरुआत करने वाले मिश्रा 1960 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय उनके बड़े भाई और तत्कालीन केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा को जाता है। लेकिन 1975 में ललित नारायण मिश्रा की एक बम विस्फोट में हत्या ने जगन्नाथ मिश्रा को अंदर तक हिला दिया। इस त्रासदी ने उन्हें कमजोर नहीं, बल्कि और मजबूत बनाया और यहीं से उनकी राजनीतिक यात्रा का एक नया अध्याय शुरू हुआ।

38 साल की उम्र में बने मुख्यमंत्री
ललित नारायण मिश्रा की हत्या के बाद, जगन्नाथ मिश्रा ने 1975 में मात्र 38 साल की उम्र में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उस समय वह देश के सबसे युवा मुख्यमंत्रियों में से एक थे। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने शिक्षा और ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान दिया। बिहार विश्वविद्यालय में सुधारों और सामाजिक कल्याण की योजनाओं ने उनकी लोकप्रियता को बढ़ाया। उनकी सादगी और जनता के साथ सीधे जुड़ाव की शैली उन्हें ‘जननायक’ के रूप में स्थापित करती थी।
उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया
जगन्नाथ मिश्रा के सबसे ऐतिहासिक और साहसिक फैसलों में से एक था उर्दू को बिहार की दूसरी राजभाषा का दर्जा देना। 1980 के दशक में लिया गया यह फैसला अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, का दिल जीतने वाला साबित हुआ। दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया और कटिहार जैसे जिलों में इस फैसले ने कांग्रेस की लोकप्रियता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। हालांकि, इस फैसले ने मिथिलांचल में एक बड़ा विवाद भी खड़ा कर दिया। मैथिली भाषा को संवैधानिक मान्यता की मांग कर रहे मैथिल ब्राह्मणों ने इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान पर हमला माना। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, एबीवीपी और भाजपा ने इस फैसले का जमकर विरोध किया। विरोध प्रदर्शन हुए और उनके पुतले भी जलाए गए। आलोचकों ने इसे ‘वोट बैंक की राजनीति’ और ‘तुष्टिकरण’ का नाम दिया।

विवादों से घिरा रहा सफर
जगन्नाथ मिश्रा का राजनीतिक सफर सिर्फ उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं रहा। 1990 के दशक में जब चारा घोटाला सामने आया, तो बिहार की राजनीति में भूचाल आ गया। इस घोटाले ने कई बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा पर सवाल उठाए, जिसमें जगन्नाथ मिश्रा का नाम भी शामिल था। 2013 में उन्हें इस मामले में दोषी ठहराया गया और चार साल की सजा के साथ दो लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया। इस फैसले ने उनकी छवि को गहरा नुकसान पहुंचाया, हालांकि उनके समर्थक हमेशा यह दावा करते रहे कि वह एक राजनीतिक साजिश का शिकार हुए हैं। जगन्नाथ मिश्रा खुद भी जीवनभर अपनी बेगुनाही का दावा करते रहे।
एक युग का अंत
लंबी बीमारी (कैंसर) से जूझते हुए 19 अगस्त 2019 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव बलुआ (सुपौल) में राजकीय सम्मान के साथ किया गया। बिहार सरकार ने उनके निधन पर तीन दिन के राजकीय शोक की घोषणा की थी। जगन्नाथ मिश्रा का जीवन बिहार की राजनीति का एक ऐसा आईना है, जिसमें उपलब्धियों की चमक भी है और विवादों की परछाई भी। वे एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने बिहार की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया और उनकी विरासत आज भी बिहार के सियासी गलियारों में महसूस की जाती है।

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