
भारतीय न्यायपालिका के चरित्र और आचरण को लेकर हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने जो टिप्पणी की, वह केवल एक व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि न्यायिक मर्यादा की गहराई से जुड़ा एक चिंतन है। उन्होंने न्यायाधीशों से संयम बरतने का आग्रह करते हुए कहा कि न्यायपालिका को फैसलों के माध्यम से बोलना चाहिए, न कि व्यक्तिगत राय या सार्वजनिक मंचों पर टिप्पणियों के जरिए। यह विचार उस आदर्श की ओर संकेत करता है, जिसमें न्यायाधीश को एक संन्यासी की तरह जीवन जीने की अपेक्षा की जाती है—निष्कलंक, निरपेक्ष और मौन।
संयम: न्यायिक गरिमा की पहली शर्त
न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों को कम बोलना, सटीक और संक्षिप्त लिखना चाहिए। यह एक प्रकार की साधना है, जो न्यायिक पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। यह विचार कोई नया नहीं है। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार इस बात पर जोर दिया है कि न्यायाधीशों को सोशल मीडिया से दूर रहना चाहिए और फैसलों पर सार्वजनिक टिप्पणी से बचना चाहिए।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की दो महिला न्यायिक अधिकारियों की सेवा समाप्ति से जुड़े एक मामले में न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और एन कोटिश्वरमडे की पीठ ने कहा था कि न्यायपालिका दिखावे का मंच नहीं है। उन्होंने फेसबुक जैसे मंचों पर न्यायिक अधिकारियों की उपस्थिति को अनुचित बताया और कहा कि न्यायाधीशों को एक संन्यासी की तरह रहना चाहिए और घोड़े की तरह काम करना चाहिए।
सोशल मीडिया और न्यायिक छवि
आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया न्यायाधीशों के लिए एक चुनौती बन गया है। उच्च न्यायालयों में यह अनौपचारिक नियम है कि न्यायाधीश बनने के बाद वकीलों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट हटाने चाहिए। हालांकि, न्यायिक मजिस्ट्रेट इस नियम का पालन नहीं करते और कई युवा न्यायाधीश सेलिब्रिटी जैसी हैसियत का आनंद लेने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं।
इस व्यवहार के पीछे नियमों की कमी है। 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन’ नामक दस्तावेज को अपनाया था, लेकिन यह संहिता बाध्यकारी नहीं है। विधि आयोग की 195वीं रिपोर्ट में संहिता के उल्लंघन को दुर्व्यवहार मानने की सिफारिश की गई थी, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

मौखिक टिप्पणियों का प्रभाव
न्यायाधीशों की मौखिक टिप्पणियां कभी-कभी उनके निजी विचारों और मान्यताओं की झलक देती हैं। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की खंडपीठ ने कहा था कि न्यायाधीश अपने निर्णयों और आदेशों के माध्यम से बोलते हैं। लेकिन जब मीडिया इन टिप्पणियों को उठाता है, तो वे सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बन जाती हैं और कानूनी मुद्दों की वास्तविकता को ढक सकती हैं।
हाल ही में सीजेआई गवई की पीठ ने एक याचिका खारिज करते हुए याचिकाकर्ता को ‘भगवान विष्णु से प्रार्थना’ करने की सलाह दी। यह टिप्पणी तुरंत सुर्खियों में आ गई। इसी तरह, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता द्वारा राहुल गांधी की देशभक्ति पर की गई टिप्पणी ने अदालत कक्ष के बाहर राजनीतिक बहस को जन्म दिया। ऐसे उदाहरण दिखाते हैं कि न्यायाधीशों के शब्द केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी रखते हैं।
न्यायिक दृष्टिकोण बनाम न्यायिक अधिकार
यह बहस न्यायिक अधिकार पर सवाल उठाने की नहीं है, बल्कि न्यायिक दृष्टिकोण की है। न्यायाधीशों के शब्दों का कानूनी महत्व तो होता ही है, साथ ही वे सार्वजनिक धारणा को भी प्रभावित करते हैं। एक आकस्मिक या क्षणिक टिप्पणी, यदि व्यापक रूप से रिपोर्ट की जाए, तो वह फैसले से पहले ही जनमत को दिशा दे सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने आदर्श न्यायाधीश को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, जो संन्यासी की तरह रहता है—जिसकी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं होती। यह ‘एकांत जीवन’ इसलिए आवश्यक है क्योंकि न्यायाधीश को उन लोगों के संपर्क से बचना चाहिए, जिनके अधिकारों और दायित्वों का वह निर्णय करता है।
मौन का अर्थ अनुशासन
न्यायाधीशों के लिए संयम मौन नहीं, बल्कि अनुशासन है। यह वह कला है, जिसमें केवल वही बोला जाए जो न्याय के लिए आवश्यक हो। आज जब हर शब्द मिनटों में लाखों स्क्रीन तक पहुंच सकता है, यह अनुशासन न केवल वांछनीय है, बल्कि अनिवार्य भी है। न्याय सबसे जोर से तब बोलता है, जब वह केवल वही बोलता है जो जरूरी है।
एक न्यायाधीश जो जानता है कि कब चुप रहना है, वह केवल मौन नहीं है—वह बुद्धिमान है। और कभी-कभी, शब्दों के बीच का विराम ही सच्चाई को उजागर करता है।
इस संदर्भ में न्यायमूर्ति नरसिम्हा की टिप्पणी केवल एक नैतिक आग्रह नहीं, बल्कि न्यायिक व्यवस्था की स्थिरता और विश्वसनीयता को बनाए रखने की दिशा में एक आवश्यक चेतावनी है। न्यायाधीशों को संन्यासी की तरह संयमित जीवन जीने की अपेक्षा केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि न्याय के मूल स्वभाव की मांग है।

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