
भारतीय राजनीति में दलित सशक्तीकरण की जब भी बात होती है, कांशीराम का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में 15 मार्च 1934 को एक साधारण रैदासिया सिख परिवार में जन्मे कांशीराम ने अपने जीवन में जातिगत भेदभाव की कठोर सच्चाइयों का सामना किया। उनके पिता एक मेहनती किसान थे, और बचपन से ही उन्होंने देखा कि किस तरह ऊंची जातियों का दबाव दलितों को सामाजिक रूप से कुचलता है। हालांकि, सिख धर्म की समानता की शिक्षा ने उनके भीतर विद्रोह की भावना को जन्म दिया।
शिक्षा और नौकरी से सामाजिक चेतना तक का सफर
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कांशीराम ने 1958 में पुणे स्थित डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (DRDO) में लैब असिस्टेंट के रूप में कार्यभार संभाला। सरकारी नौकरी की प्रतिष्ठा के बावजूद, उन्हें वहां भी जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। यही अनुभव उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बना और उन्होंने सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का संकल्प लिया।
अंबेडकरवाद से प्रेरणा और संगठन निर्माण
बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की पुस्तक ‘Annihilation of Caste’ ने कांशीराम को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने पहले रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) से जुड़कर दलित आंदोलन में भाग लिया, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी राह अलग कर ली। 1971 में उन्होंने अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के संगठन की नींव रखी, जो 1978 में बामसेफ (Backward and Minority Communities Employees Federation) के रूप में स्थापित हुआ। इसका उद्देश्य था—शोषित वर्गों को शिक्षित, जागरूक और संगठित करना।

‘चमचा युग’ और राजनीतिक चेतना का विस्तार
कांशीराम की चर्चित पुस्तक ‘चमचा युग’ ने दलित नेतृत्व की कमजोरियों को उजागर किया। उन्होंने ‘चमचा’ शब्द का प्रयोग उन नेताओं के लिए किया, जो सत्ताधारी दलों से समझौता कर दलित हितों की अनदेखी करते थे। उनका मानना था कि दलितों को अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनानी चाहिए, जो किसी भी प्रकार की समझौता राजनीति से मुक्त हो।
बहुजन समाज पार्टी की स्थापना और संघर्ष
1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की। पार्टी का नारा था—“वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा!” इस नारे ने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एकजुट कर उन्हें राजनीतिक ताकत दी। उन्होंने छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से पहला चुनाव लड़ा, हालांकि जीत नहीं मिली। लेकिन 1991 में उत्तर प्रदेश के इटावा से लोकसभा चुनाव जीतकर उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत का परिचय दिया। 1996 में वे पंजाब के होशियारपुर से दूसरी बार सांसद बने।

मायावती को उत्तराधिकारी बनाकर नेतृत्व सौंपा
कांशीराम ने मायावती को राजनीति में लाकर उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाया। 2001 में स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने स्वयं कभी कोई पद नहीं लिया, बल्कि संगठन को मजबूत करने और नेतृत्व को आगे बढ़ाने में विश्वास रखा। उनकी दूरदर्शिता ने बसपा को उत्तर प्रदेश की प्रमुख राजनीतिक ताकत बना दिया।
प्रेरक विरासत और सम्मान
‘मान्यवर’ और ‘साहेब’ जैसे सम्मानजनक संबोधनों से पुकारे जाने वाले कांशीराम 20वीं सदी के अंत में भारतीय राजनीति में एक प्रेरक व्यक्तित्व बन गए। 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विचारधारा और संगठनात्मक योगदान आज भी दलित और बहुजन समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

कांशीराम ने न केवल सामाजिक समानता की लड़ाई लड़ी, बल्कि अपने संगठनात्मक कौशल से समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया। वे भीमराव अंबेडकर के सपनों के सच्चे सिपाही थे, जिन्होंने दलित चेतना को आवाज दी और उसे राजनीतिक शक्ति में बदलने का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी विरासत आज भी सामाजिक न्याय की लड़ाई में मार्गदर्शक बनी हुई है।

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