
17 साल पहले महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए बम धमाके के मामले में एनआईए की विशेष अदालत ने गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने सबूतों के अभाव में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। इन सात आरोपियों में लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित, पूर्व भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय सहित अन्य चार लोग शामिल थे। अदालत के इस फैसले के बाद न केवल पीड़ित परिवारों में मायूसी है, बल्कि देश की जांच एजेंसियों की कार्यशैली और साख पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं।
फैसले की प्रमुख बातें: सबूत नहीं, प्रक्रिया में चूक
एनआईए कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि धमाका किसने किया और बम मोटरसाइकिल में ही रखा गया था या नहीं। अदालत ने कई जांच खामियों की ओर भी इशारा किया:

- बम मोटरसाइकिल में था, यह साबित नहीं हो पाया।
- प्रसाद पुरोहित के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले कि उन्होंने बम बनाया या सप्लाई किया।
- धमाके के बाद घटनास्थल का पंचनामा सही तरीके से नहीं किया गया।
- घटनास्थल से फिंगरप्रिंट नहीं लिए गए, जिससे अपराधियों की पहचान मुश्किल हुई।
- बम में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा के नाम थी, यह भी सिद्ध नहीं हो पाया।
- बाइक का चेसिस नंबर भी बरामद नहीं किया गया।
इन सब कारणों से अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष की दलीलें और प्रस्तुत साक्ष्य आरोपियों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

17 साल का लंबा सफर, फिर भी नतीजा ‘शून्य’
29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए बम धमाके ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। रमजान के पवित्र महीने और नवरात्रि से ठीक पहले हुए इस विस्फोट में 6 लोगों की मौत हुई थी और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। इस मामले में 323 गवाहों से पूछताछ की गई, लेकिन इनमें से 34 गवाहों ने अपने बयान से पलटी मार ली, जिससे अभियोजन पक्ष की स्थिति कमजोर हो गई।
शुरुआती जांच महाराष्ट्र एटीएस ने की थी, लेकिन 2011 में मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया गया। एनआईए ने 2016 में आरोपियों को बरी करने की सिफारिश करते हुए एक नया आरोप पत्र दाखिल किया था, जिसमें यह कहा गया कि प्रज्ञा ठाकुर सहित कई आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव भी कम नहीं
इस मामले ने हिंदू आतंकवाद जैसे शब्द को जन्म दिया और वर्षों तक राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को इस केस में आरोपी बनाए जाने के बाद कई राजनीतिक दलों ने इसे सांप्रदायिक एजेंडे से जोड़ दिया था। हालांकि बाद में भाजपा ने उन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट देकर सांसद बनाया।
अब जब कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है, तो विपक्ष यह सवाल उठा रहा है कि आखिर इतने वर्षों तक निर्दोषों को आतंकवादी कहकर क्यों घसीटा गया? वहीं, पीड़ित पक्षों और मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि अगर ये आरोपी निर्दोष हैं, तो असली दोषी कहां हैं? इतने साल बाद भी असली गुनहगार का न मिलना एक संवेदनशील न्याय व्यवस्था पर गहरा धब्बा है।

अब आगे क्या होगा…
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को इस फैसले की विधिपूर्वक समीक्षा करनी चाहिए। जरूरत पड़ी तो उच्च न्यायालय में अपील भी की जा सकती है, लेकिन इसके लिए ठोस साक्ष्य की आवश्यकता होगी। दूसरी ओर, यह मामला जांच एजेंसियों के पेशेवर मानकों और निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
मालेगांव धमाके जैसे गंभीर मामले में 17 साल तक जांच और सुनवाई के बाद भी यदि न्याय प्रक्रिया असली गुनहगारों तक नहीं पहुंचती, तो यह न केवल पीड़ितों के साथ अन्याय है, बल्कि पूरे न्याय तंत्र की साख पर भी प्रश्न उठाता है। अदालत का फैसला अंतिम है, लेकिन इस “अंत” ने कई नए सवालों की शुरुआत कर दी है।

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