
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शुक्रवार को बेंगलुरु में आयोजित नेले फाउंडेशन के रजत जयंती समारोह को संबोधित करते हुए राष्ट्र निर्माण और सामाजिक उत्थान के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि समाज केवल कानून से नहीं चलता है, बल्कि संवेदना से भी चलता है।

मोहन भागवत ने नेले फाउंडेशन को 25 साल तक एक अच्छा काम जारी रखने के लिए बधाई दी। उन्होंने कहा कि एक अच्छा काम 25-50 साल तक चलाना कठिन होता है, क्योंकि अच्छा काम करने का रास्ता हमेशा थकाने वाला और कठिन होता है, लेकिन इतने लंबे समय तक अच्छा काम करते रहना हम सबके लिए आनंद का विषय है।
विश्वगुरु बनने का मूल मंत्र: ‘एक ही अस्तित्व’
आरएसएस प्रमुख ने ‘अपनेपन’ की भावना को समाज का मूल आधार बताया। उन्होंने कहा कि “हम सभी को उस अपनेपन की संवेदना, उत्कृष्टता से अपने हृदय में अभिभूत करके उसे जागरूक रखने का काम करना चाहिए।” उनका मानना है कि जब यह ‘अपनापन’ जागृत होगा, “तब हमारा समाज, भारतवर्ष, खड़ा होगा और हम विश्वगुरु बनेंगे।”
भागवत ने इस ‘अपनेपन’ को सभी लोगों का मूल स्वरूप बताते हुए एक गहरा दार्शनिक विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सभी लोगों में एक ही अस्तित्व है, जिसे हमारी परंपरा में ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है, और यह एक ऐसा तथ्य है जिसे आज विज्ञान भी मानता है। यह बयान भारतीय अध्यात्म और आधुनिक विज्ञान के बीच एक सेतु बनाने का प्रयास करता है।
इंसान और जानवर की संवेदना में अंतर: करुणा ही मानवता
मोहन भागवत ने संवेदना की भावना को एक उदाहरण से समझाया। उन्होंने कहा कि जब हम खाना खाने बैठते हैं और कोई भूखा व्यक्ति पास आता है, तो इंसान या तो उसे खाना खिलाएगा या उसे भगा देगा। लेकिन अगर वह नहीं जाता है, तो हम उसकी तरफ पीठ करके खाना खाएंगे, क्योंकि हम उसके सामने भोजन रखकर नहीं खा सकते। यही संवेदना है।
उन्होंने इंसान और जानवर की संवेदना के बीच अंतर स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि जानवरों में भी संवेदना होती है, लेकिन उनकी संवेदना केवल अपने तक सीमित होती है। उनके लिए केवल खाना है और जीना है। इसलिए जानवर आत्महत्या नहीं करते। हालांकि, इंसान को दूसरे की संवेदना का अहसास होता है, जो दूसरे के दुख-तकलीफ को समझता है। इसी भावना को उन्होंने करुणा कहा और इसे मानव हृदय की एक विशिष्ट भावना बताया।
जड़वादी चिंतन की जद में आता समाज
भागवत ने वर्तमान सामाजिक स्थिति पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने याद दिलाया कि 50-60 साल पहले देहातों से शहर में पढ़ने जाने वाले छात्र किसी के भी घर में ठहरने और खाने की व्यवस्था पा लेते थे। पहले घरों में खाने का एक हिस्सा निकालकर रखा जाता था कि कोई भी आएगा तो उसको खिलाया जाएगा।
उन्होंने जोर दिया कि पहले समाज संवेदनाओं से चलता था, लेकिन अब हम धीरे-धीरे जड़वादी चिंतन की जद में हो गए हैं। यह टिप्पणी आधुनिक जीवनशैली और भौतिकवादी सोच पर एक महत्वपूर्ण आलोचना है।
औपचारिकता से प्रेरणा की ओर
वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करते हुए मोहन भागवत ने कहा कि आज समाज की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि सामाजिक कार्यों को औपचारिक रूप से करना ही होगा। उन्होंने नेले फाउंडेशन जैसे संगठनों की सराहना की कि वे 25 वर्षों से ऐसा कर रहे हैं और यह एक सकारात्मक पहल है।
हालांकि, उन्होंने कार्यों को करने वालों के लिए एक उद्देश्य स्पष्ट करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका मानना है कि ऐसे कार्यों को देखकर लोगों में करुणा और सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति जागरूकता विकसित होनी चाहिए। उन्होंने अपील की कि समाज के मूल्यों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए और जो लोग यह कार्य कर रहे हैं, उनसे दूसरों को प्रेरणा मिलनी चाहिए, ताकि समाज प्रगति कर सके।

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