
ओडिशा की ‘आयरन लेडी’ और उड़िया साहित्य की सशक्त लेखिका नंदिनी सत्पथी भारतीय राजनीति और साहित्य के इतिहास में एक प्रेरणादायी नाम हैं। वह न केवल ओडिशा की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं, बल्कि उनकी पहचान एक प्रखर लेखिका और समाजसेवी के रूप में भी थी। उनका जीवन साहस, संघर्ष और सेवा का प्रतीक था, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बना रहेगा।
9 जून 1931 को ओडिशा (तत्कालीन उड़ीसा) के कटक के पीथापुर में जन्मीं नंदिनी सत्पथी, स्वतंत्रता सेनानी और साहित्यकार कालिंदी चरण पाणिग्रही की पुत्री थीं। उनके चाचा भगवती चरण पाणिग्रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओडिशा इकाई के संस्थापक थे। मात्र आठ वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ दीवारों पर आजादी के नारे लिखकर और यूनियन जैक को उतार कर विद्रोह का साहसिक कदम उठाया। इसके चलते उन्हें ब्रिटिश पुलिस की बर्बरता का सामना करना पड़ा, लेकिन वह डटी रहीं।
राजनीति में ऐतिहासिक सफर
नंदिनी सत्पथी का राजनीतिक सफर 1962 में कांग्रेस नेता के रूप में शुरू हुआ। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से हुए आंदोलन के तहत उन्हें राज्यसभा में भेजा गया। 1966 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्रालय में केंद्रीय मंत्री बनाया गया। वहां उन्होंने अपने प्रभावशाली कार्यों से खास पहचान बनाई।

1972 में बीजू पटनायक के कांग्रेस छोड़ने के बाद नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं और दिसंबर 1976 तक इस पद पर रहीं। वह दो बार मुख्यमंत्री बनने वाली राज्य की पहली महिला थीं। हालांकि, आपातकाल के दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध किया और 1976 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
1977 में वह ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ से जुड़ गईं और बाद में 1989 में राजीव गांधी के आमंत्रण पर दोबारा कांग्रेस में शामिल हुईं। 2000 तक वह ढेंकनाल विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहीं।
साहित्य में विशिष्ट योगदान
राजनीति के साथ-साथ नंदिनी सत्पथी ने उड़िया साहित्य को भी समृद्ध किया। वह मासिक पत्रिका ‘कलाना’ की संपादक रहीं और उनकी कई साहित्यिक कृतियां चर्चित रहीं। उनके द्वारा अनूदित तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा’ और अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ उड़िया पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए।

उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और उन्हें 1998 में साहित्य भारती सम्मान से सम्मानित किया गया। साहित्य और समाज सेवा में उनके योगदान को आज भी आदर के साथ याद किया जाता है।
प्रेरणा बन चुकी है विरासत
4 अगस्त 2006 को भुवनेश्वर में उनका निधन हो गया, लेकिन नंदिनी सत्पथी की विरासत आज भी जीवित है। उनका जीवन यह दर्शाता है कि एक महिला किस तरह राजनीति, साहित्य और सामाजिक परिवर्तन में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती है। वे नारी शक्ति की सच्ची प्रतीक थीं और हमेशा रहेंगी।

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