
बढ़ती तकनीकी सुविधाओं और अपराध से अर्जित धन के अंतरराष्ट्रीय लेन-देन की व्यापक संभावनाओं ने संगठित अपराध का भी वैश्वीकरण कर दिया है। नशीली दवाओं, अवैध हथियारों और भाड़े की हत्या जैसे क्षेत्रों में सक्रिय ये वैश्विक गिरोह राष्ट्रों की सीमाओं, पासपोर्ट और वीजा जैसे नियंत्रणों की धज्जियां उड़ाते हुए सक्रिय हैं। ऐसा ही एक गैंग लॉरेंस बिश्नोई का है, जिस पर जेल में रहकर ही हत्या और फिरौती जैसे अपराधों का संचालन करने का आरोप है। हाल ही में, कनाडा सरकार ने इस गैंग को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है, जिसने भारत और कनाडा के बीच पहले से तनावपूर्ण संबंधों में एक नया आयाम जोड़ा है।
लॉरेंस बिश्नोई गैंग और राजनयिक तल्खी
कनाडा सरकार का मानना है कि इस गैंग की मदद से भारतीय एजेंसियाँ कनाडा में सक्रिय खालिस्तान समर्थक तत्वों के खिलाफ कार्रवाइयाँ कराती रही हैं। यह आरोप तब और मुखर हुआ जब 18 जून, 2023 को कनाडा में खालिस्तान आंदोलन के एक प्रमुख नेता हरदीप सिंह निज्जर को दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया गया।
कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इस हत्या के लिए भारतीय एजेंसियों पर उंगली उठाई थी, हालांकि भारत सरकार ने इन आरोपों का खंडन किया था। इस घटना ने दोनों देशों के संबंधों में इस कदर तल्खी भर दी कि कूटनीतिक स्तर पर उनके संबंध न्यूनतम हो गए थे। हाल ही में लंबे विमर्शों के बाद दोनों देशों के राजदूत वापस अपने काम पर लौटे हैं।

खुफिया अभियान, ‘फाइव आईज’ का संदेह और पेशेवर आचरण
लॉरेंस बिश्नोई गैंग से संबंधित कनाडाई सरकार की कार्रवाई का विश्लेषण करते समय, यह समझना आवश्यक है कि अपने विरोधियों का सफाया कराने के लिए भाड़े के हत्यारों का इस्तेमाल सभी सरकारें करती रही हैं। सीआईए और मोसाद ने दुनिया भर में भूमिगत संगठनों का उपयोग ऐसे अभियानों के लिए किया है, यहाँ तक कि सोवियत रूस में स्टालिन ने भी अपने विरोधी ट्रॉट्स्की की हत्या मेक्सिको में भाड़े के हत्यारे से कराई थी।
यद्यपि भारत सरकार दावा करती रही है कि कनाडा ने कभी ऐसा अकाट्य सबूत उपलब्ध नहीं कराया है जिससे किसी भारतीय एजेंसी की संलिप्तता सिद्ध हो सके, पर कनाडा समेत खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिए गठित ‘फाइव आईज’ के अन्य सदस्य (अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड) भारत की दलील से पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं।
भारत सरकार के स्पष्टीकरण को नकारने के लिए कोई बहुत विश्वसनीय कारण नहीं है, और यह मान लेना चाहिए कि निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंसियों का हाथ नहीं है। यदि उनकी संलिप्तता कभी सिद्ध हुई, तो यही कहना होगा कि ऑपरेशन बहुत ही गैर-पेशेवर तरीके से किया गया था।
स्थिति और गंभीर तब हो गई जब निज्जर हत्याकांड के कुछ ही दिनों के अंदर वैसी ही एक घटना अमेरिका में हुई, जिसमें अमेरिकी अधिकारियों ने अपनी धरती पर एक अन्य खालिस्तान समर्थक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या का षड्यंत्र रचने का आरोप एक भारतीय खुफिया एजेंसी पर लगाया और एक व्यक्ति को गिरफ्तार भी किया।
विदेशी धरती से संचालित अपराध सिंडिकेट
पिछले कुछ सालों से ऐसे अपराधी गिरोहों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो विदेशी धरती पर बैठकर भारतीय सीमा में अपने अपराध सिंडिकेट का संचालन कर रहे हैं। इनके सरगना बाहर बैठकर देश में अपने गुर्गों द्वारा फिरौती या भाड़े की हत्या जैसे जघन्य अपराध कराते रहते हैं।
इन गिरोहों की नशीली दवाओं और गैर-कानूनी हथियारों के वैश्विक बाजार में भी अच्छी-खासी भागीदारी है। हमारी चिंता तब शुरू होती है, जब वे इन प्रतिबंधित वस्तुओं को भारतीय उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने लगते हैं। उत्तर में पंजाब और पूर्वोत्तर के कई राज्य नशीले पदार्थों की चिंताजनक हद तक चपेट में इन्हीं अपराधियों की वजह से आए हैं।
इनमें एक समूह ऐसा है जिसे कई राष्ट्र हमसे शत्रुता के कारण प्रोत्साहित करते हैं। ये पाकिस्तान द्वारा पोषित वे अपराधी हैं, जो उसकी सरजमीं पर रहकर भारत के पृथकतावादी संगठनों की भिन्न-भिन्न तरीकों से मदद करते हैं। इनको वहाँ की एजेंसियों की मदद से प्रत्यावर्तित कराने की कल्पना भी व्यर्थ है। उनके खिलाफ कूटनीतिक दबावों से विश्व जनमत को अपने पक्ष में करके ही कार्रवाई की जा सकती है।

प्रत्यर्पण की चुनौतियाँ: मानवाधिकारों का मुद्दा
पिछले कुछ वर्षों में थाईलैंड, दुबई, नेपाल, अमेरिका, कनाडा और कुछ लैटिन अमेरिकी देश इन गैंगस्टरों के लिए सबसे बड़ी शरणस्थली के रूप में उभरे हैं। इन सभी देशों के साथ भारत ने प्रत्यर्पण संधियाँ की हैं, पर इसके बावजूद वांछित अपराधियों को वापस लाना और उन्हें भारतीय अदालतों के सामने पेश कर दंडित करा पाना कानून-व्यवस्था लागू कराने वाली संस्थाओं के लिए एक दुरूह कार्य है।
हालिया समय में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का रवैया बहुत सहयोगपूर्ण रहा है और बड़ी संख्या में अपराधी वहाँ से भारत भेजे गए हैं। यह दोनों देशों के शासकों के बीच विकसित हुए बेहतर संबंधों के चलते संभव हुआ है। नेपाल भी लंबे समय से हमारा सहयोग करता रहा है।
समस्या पश्चिमी देशों से आती है। इन देशों में मानवाधिकारों के सम्मान के ऊँचे स्तर के कारण, वहाँ की अदालतें बहुत से मामलों में सिर्फ इस तर्क के आधार पर किसी अपराधी को भारत को सौंपने से इनकार कर देती हैं कि:—
-भारतीय जेलों में उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाएगा।
-भारत में पुलिस द्वारा पूछताछ के दौरान थर्ड डिग्री का इस्तेमाल होगा।
इन आरोपों में सच्चाई भी है, और भारतीय मीडिया व अदालतों के निर्णय इनकी पुष्टि करने वाले उदाहरणों से भरे पड़े हैं। सिर्फ इन्हें पेश करके पश्चिमी अदालतों को आश्वस्त किया जा सकता है कि भारत भेजे जाने पर किसी व्यक्ति के, भले वह अपराधी ही क्यों न हो, मानवाधिकारों की गारंटी नहीं ली जा सकती है।
हाल में यूरोप की कई राजधानियों में मुकीम विजय माल्या, नीरव मोदी या मेहुल चोकसी जैसे आर्थिक अपराधियों ने इन्हीं तर्कों के आधार पर अपना प्रत्यर्पण रुकवा रखा है।
सबसे शर्मनाक तो यह है कि हमें कई मामलों में अपनी जेलों का विदेशी अधिकारियों द्वारा मुआयना कराना पड़ा, ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि ये मनुष्यों के रहने लायक हैं। इससे बेहतर यह होगा कि सिर्फ मुआयने के वक्त चमकने वाली जेलों को सचमुच मनुष्यों के रहने लायक बनाया जाए। इसी तरह, पुलिस को भी इस तरह से प्रशिक्षित करने की जरूरत है कि उनके आचरण की हमें किसी विदेशी अदालत में सफाई न देनी पड़े। इन आंतरिक सुधारों के बिना, वैश्विक स्तर पर अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बना रहेगा।

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