
कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें तेज हो गई हैं। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का कार्यकाल जल्द ही 30 महीने पूरे करने वाला है, जिसके बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या वह अपने उप-मुख्यमंत्री और सहयोगी डी. के. शिवकुमार के लिए पद छोड़ेंगे। मई 2023 के चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद शिवकुमार समर्थकों ने दावा किया था कि कार्यकाल के मध्य में सिद्धारमैया पद से हट जाएंगे, क्योंकि जीत में शिवकुमार की भी बराबर की भूमिका थी।
हालांकि, इन अटकलों को शिवकुमार ही हवा दे रहे हैं। वह सीधे तौर पर नेतृत्व परिवर्तन से इनकार करते हैं, पर पत्रकारों के सवालों के जवाब में रहस्यमय तरीके से कहते हैं कि “हाईकमान” ही कोई फैसला लेगा। जबकि, कांग्रेस हाईकमान ने आधिकारिक रूप से ऐसी किसी खबर की कभी पुष्टि नहीं की है।
गारंटी योजनाओं से सफलता का दावा
करीब ढाई साल से सिद्धारमैया एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जो लगातार संकटों से जूझ रही है। शुरुआती महीने चुनावी ‘पांच गारंटियों’ को पूरा करने के लिए फंड जुटाने में खर्च हुए। हाल ही में, जब कर्नाटक को प्रति व्यक्ति आय के मामले में नंबर एक राज्य का दर्जा मिला, तो मुख्यमंत्री ने इसका श्रेय इन्हीं ‘पांच गारंटियों’ को दिया।
उनका दावा था कि इन योजनाओं से लोगों के हाथों में सीधे एक लाख करोड़ रुपये दिए गए, जिससे क्रय शक्ति बढ़ी और अर्थव्यवस्था को गति मिली। हालांकि, कई अर्थशास्त्री इस सरलीकरण से सहमत नहीं हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था को वास्तविक गति देने के लिए बुनियादी ढांचे और उद्योग में निवेश की दरकार होती है।
उप-मुख्यमंत्री के विवादित फैसले
नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों के केंद्र में स्वयं डी. के. शिवकुमार हैं, जो लगातार विवादों में कूदकर राज्य को सुर्खियों में बनाए हुए हैं। नवीनतम मामला कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (KPCB) के फैसले को नकारने का है। KPCB ने रियलिटी शो ‘बिग बॉस कन्नड़ सीजन 12’ के घर (जॉलीवुड स्टूडियो) को नियमों के उल्लंघन के चलते सील कर दिया था।
मगर शिवकुमार इसे फिर से शुरू कराने की लड़ाई में शामिल हो गए। अतीत में भी उन्होंने कई मौकों पर दूसरों के फैसलों को दरकिनार करते हुए अलग रुख अपनाया है, जैसे आरक्षित सीट की जीत में दखलंदाजी और पीडब्ल्यूडी मंत्री सतीश जारकीहोली के साथ शीत युद्ध। इन गतिविधियों के बावजूद, संवैधानिक रूप से उप-मुख्यमंत्री को कोई अतिरिक्त शक्तियां नहीं मिली हैं।

सत्ता संघर्ष से चरमराई शासन-व्यवस्था
दोनों गुटों (सिद्धारमैया और शिवकुमार समर्थक) के एक-दूसरे से उलझे रहने के कारण राज्य की शासन-व्यवस्था चरमरा गई है। बेंगलुरु में यातायात की खराब स्थिति, गड्ढों की समस्या और अन्य मूलभूत मुद्दों पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है, पर राजनीतिक खींचतान के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है।
राजनीतिक पकड़ की बात करें तो, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया तमाम विवादों से बचने में कामयाब रहे हैं और उन्होंने पिछड़े समुदायों, दलितों, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ अपनी मंत्रिमंडल पर भी मजबूत पकड़ बना ली है। दूसरी ओर, शिवकुमार, मुख्यमंत्री के लिए परेशानी खड़ी करने के बावजूद, नौकरशाही के एक बड़े वर्ग को अपने पक्ष में रखने में कामयाब रहे हैं।
हाईकमान के सामने बड़ी दुविधा
अब सबकी नजरें कांग्रेस के आलाकमान पर टिकी हैं, जो एक बड़ी दुविधा में है। पार्टी को पिछड़े समुदायों के वोट बैंक को साधने के लिए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की जरूरत है, जो एक शक्तिशाली पिछड़ा कार्ड हैं। वहीं, डी. के. शिवकुमार पार्टी के लिए धन जुटाने वाले प्रमुख नेता हैं।
आलाकमान को इस राजनीतिक गतिरोध को जल्द से जल्द हल करना होगा, ताकि राज्य की शासन-व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके और पार्टी कर्नाटक में स्थिरता का संदेश दे सके। यह देखना होगा कि कांग्रेस नेतृत्व इस नाजुक स्थिति से कैसे बाहर निकलता है और क्या कार्यकाल के मध्य में नेतृत्व परिवर्तन होता है।

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