
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर छात्रसंघ चुनावों की बहाली का मुद्दा गरमा गया है। दशकों से चले आ रहे इस विवाद पर हाल ही में विधानसभा में खुलकर चर्चा हुई, जहाँ सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी बहस देखने को मिली। विपक्ष ने इसे भविष्य की नेतृत्व क्षमता का सवाल बताया, तो सरकार ने हिंसा की घटनाओं का हवाला देते हुए चुनावों को फिलहाल बहाल करने से इनकार कर दिया। यह मुद्दा केवल एक चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह हिमाचल के युवाओं के राजनीतिक भविष्य और लोकतंत्र की बुनियाद को लेकर चल रही एक बड़ी बहस का हिस्सा है।
छात्र राजनीति की ‘नर्सरी’ और हिंसा का इतिहास
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय (HPU) और राज्य के अन्य शिक्षण संस्थानों में छात्र राजनीति का एक समृद्ध और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। यह वह मंच रहा है जहाँ से कई नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। छात्र राजनीति ने न केवल नेताओं को जन्म दिया है, बल्कि यह लोकतंत्र, समाज और राष्ट्र के प्रति जागरूकता और समझ उत्पन्न करने का एक सशक्त माध्यम भी रही है। एक छात्र जब विश्वविद्यालय में पढ़ता है, तो उसका दृष्टिकोण केवल शैक्षणिक ज्ञान तक सीमित नहीं रहता। वह समाज के ताने-बाने, लोकतंत्र के मूल्यों और अपने अधिकारों को समझने लगता है। छात्र संघ और विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने से उसे नेतृत्व, जिम्मेदारी और समाज के प्रति संवेदनशीलता का अनुभव मिलता है। यही वह समय है जब छात्र भविष्य के नागरिक और नेता के रूप में परिपक्व होते हैं।
लेकिन इस सकारात्मक पहलू का एक स्याह सच भी रहा है – चुनावों के दौरान होने वाली हिंसा। इसी हिंसा ने बार-बार छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगाने को मजबूर किया। सबसे पहली बार 1985 में चुनावों पर रोक लगाई गई थी, जिसके बाद इसे 1988 में नासिर खान और 1995 में कुलदीप पठानिया की हत्या जैसी दुखद घटनाओं के बाद फिर से लागू किया गया। 2000 में प्रतिबंध हटाया गया, लेकिन 2014 में कुलपति पर हुए हमले और बढ़ते तनाव के कारण चुनावों पर स्थायी रोक लगा दी गई। इन घटनाओं में न केवल छात्रों की जानें गईं, बल्कि विश्वविद्यालय की संपत्ति को भी भारी नुकसान पहुँचा। 2010 में हुई झड़पों में विश्वविद्यालय परिसर के कई कमरे, पुस्तकालय और उपकरण क्षतिग्रस्त हो गए थे। इन घटनाओं ने प्रशासन को चुनावों पर रोक लगाने के लिए एक पुख्ता आधार दिया।
विधानसभा में गूंजा मुद्दा: भाजपा का तर्क बनाम सरकार की हिचक
22 अगस्त 2025 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र में भाजपा विधायक विपिन सिंह परमार ने छात्र संघ चुनावों की बहाली का मुद्दा जोरदार तरीके से उठाया। उन्होंने तर्क दिया कि छात्र संघ चुनाव भविष्य के नेताओं को तैयार करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। उन्होंने कहा कि इन चुनावों को बंद करके हम युवा पीढ़ी को लोकतंत्र की प्रक्रिया से दूर कर रहे हैं, जो अंततः देश और राज्य के लिए एक बड़ा नुकसान है। परमार ने चुनावों को बहाल करने और युवाओं को नेतृत्व के गुण सीखने का अवसर देने की पुरजोर मांग की।
इसके जवाब में, शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर ने सरकार का पक्ष रखा। उन्होंने कहा कि वर्तमान में छात्र संघ चुनावों को बहाल नहीं किया जाएगा, क्योंकि चुनावों के दौरान हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं, जिससे शैक्षणिक माहौल खराब होता है। हालांकि, उन्होंने भविष्य में इस मुद्दे पर विचार करने की बात कहकर मामले को पूरी तरह से खारिज नहीं किया। सरकार का यह रुख सुरक्षा और कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता देने की उसकी नीति को दर्शाता है, जबकि विपक्ष इस मुद्दे को युवाओं के अधिकारों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से जोड़कर देख रहा है।
क्या हिमाचल ही अपवाद है
हिमाचल प्रदेश में छात्रसंघ चुनावों पर लगी स्थायी रोक का मामला देश के अन्य शिक्षण संस्थानों की स्थिति से अलग नहीं है। राजस्थान में इस सत्र छात्र संघ चुनाव नहीं होंगे क्योंकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हो रही है। पश्चिम बंगाल में 2017 से अब तक छात्र संघ चुनाव नहीं हुए हैं। झारखंड (रांची विश्वविद्यालय) और पांडिचेरी विश्वविद्यालय में भी वर्षों से चुनाव बंद हैं। वहीं, हाल ही में पटना विश्वविद्यालय ने हिंसा और अशांत माहौल की चिंता के चलते चुनावों को ‘शांत स्थिति आने पर’ ही संभव होने की बात कही। इन सब के बीच, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) का उदाहरण एक उम्मीद जगाता है, जहाँ 2008-2012 तक चुनाव बंद रहे, लेकिन अब वहाँ चुनाव पुन: शुरू हो चुके हैं। यह दर्शाता है कि एक बीच का रास्ता निकाला जा सकता है, जहाँ सुरक्षा के उपायों के साथ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल किया जाए।
छात्र राजनीति की ‘नर्सरी’ और हिमाचल के नेता
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कई ऐसे बड़े नेता हैं, जिनकी नींव छात्र राजनीति में ही पड़ी थी। इनमें प्रमुख हैं सतपाल सत्ती, कामरेड राकेश सिंघा, और केवल सिंह पठानिया। इन नेताओं ने छात्र राजनीति से अपनी नेतृत्व क्षमता को निखारा और बाद में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अपना लोहा मनवाया। इसके अलावा, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले छात्र नेता भी हैं, जैसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री आशीष चौहान, भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ के निगम भंडारी और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के विक्रम सिंह। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि छात्र संघ चुनावों पर रोक से राज्य भविष्य के नेताओं की एक पूरी पौध को पनपने से रोक रहा है।
छात्र संघ चुनावों पर रोक ने हिमाचल के युवाओं को एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर कर दिया है। सरकार का हिंसा का डर जायज है, लेकिन इसे स्थायी समाधान नहीं माना जा सकता। यह आवश्यक है कि चुनावों को बहाल किया जाए, साथ ही साथ हिंसा और संपत्ति को हुए नुकसान को रोकने के लिए ठोस उपाय किए जाएं। विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस और छात्र संगठनों को एक साथ मिलकर एक ऐसी आचार संहिता बनानी चाहिए, जो चुनावों को लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण बनाए। छात्र संघ चुनाव बहाल करना न केवल युवाओं के लिए आवश्यक है, बल्कि यह लोकतंत्र और समाज की मजबूती के लिए भी जरूरी है। यह हिमाचल के लिए एक बड़ा राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न है: क्या हम अपने युवाओं को लोकतंत्र की पाठशाला में सीखने का अवसर देंगे, या डर के कारण उन्हें इससे दूर रखेंगे?

गांव से लेकर देश की राजनीतिक खबरों को हम अलग तरीके से पेश करते हैं। इसमें छोटी बड़ी जानकारी के साथ साथ नेतागिरि के कई स्तर कवर करने की कोशिश की जा रही है। प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक की राजनीतिक खबरें पेश करने की एक अलग तरह की कोशिश है।



