
झारखंड की राजनीति और आदिवासी आंदोलन के सबसे प्रभावशाली चेहरों में शुमार झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संरक्षक और पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का सोमवार को दिल्ली में निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे और लंबे समय से बीमार चल रहे थे। जून के अंतिम सप्ताह में उन्हें किडनी संबंधी समस्याओं के चलते सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनके निधन की पुष्टि उनके बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर की।
शिबू सोरेन, जिन्हें झारखंड की राजनीति में ‘गुरुजी’ कहा जाता है, ने जीवन भर आदिवासी अधिकारों, जल-जंगल-जमीन और क्षेत्रीय पहचान के लिए संघर्ष किया। उनके जीवन की कहानी किसी आंदोलनकारी से राजनेता बनने की नहीं, बल्कि एक आदिवासी समाज को राजनीतिक चेतना देने की कहानी है।
राजनीतिक चेतना की नींव
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को तत्कालीन बिहार के रामगढ़ क्षेत्र (अब झारखंड) में एक सांताली परिवार में हुआ। उन्होंने बहुत कम उम्र में आदिवासी अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी शुरू की। वर्ष 1972 में उन्होंने ‘संताल युवा संघ’ की स्थापना की और 1973 में बिनोद बिहारी महतो व ए. के. रॉय जैसे नेताओं के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की नींव रखी।

इस संगठन ने झारखंड को बिहार से अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए जन आंदोलन की शुरुआत की, जिसका परिणाम 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य की स्थापना के रूप में सामने आया। इस ऐतिहासिक आंदोलन में शिबू सोरेन की भूमिका निर्णायक रही।
लोकसभा से मुख्यमंत्री तक का सफर
शिबू सोरेन ने 1980 से अपने संसदीय जीवन की शुरुआत की। 1989, 1991, 1996 और 2004 में वे लोकसभा के लिए चुने गए। 2002 में वे राज्यसभा पहुंचे लेकिन उसी वर्ष फिर से लोकसभा सदस्य बने और राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। 2004 में उन्हें केंद्र सरकार में कोयला और खनिज मंत्री बनाया गया, लेकिन 1975 के चिरुदिह हत्याकांड के आरोपों के चलते उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा।
मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल उतार-चढ़ाव से भरा रहा। 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने के कारण मात्र नौ दिन में इस्तीफा देना पड़ा। अगस्त 2008 में फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन विधानसभा सदस्य न होने के चलते जनवरी 2009 में उन्हें पद छोड़ना पड़ा। तीसरी बार दिसंबर 2009 में सत्ता में आए लेकिन छह माह बाद ही भाजपा ने समर्थन वापसी कर ली, जिससे सरकार गिर गई।

विवादों की काली छाया
शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन जितना संघर्षशील रहा, उतना ही विवादों से भी घिरा रहा।
चिरुदिह हत्याकांड (1975) में उन पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने और 10 लोगों की हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 2008 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
ब्राइबरी कांड (1993–1998) में उन पर आरोप लगा कि कांग्रेस सरकार के विश्वासमत में समर्थन देने के बदले में धन लिया गया। उन्हें 1996 में गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन 1998 में संविधान की धारा 105(2) के तहत सांसदों को वोट व भाषण पर मिली कानूनी छूट के चलते वह दोषमुक्त घोषित हुए।
निजी सचिव की हत्या मामला (1994) में भी वे आरोपी बनाए गए और 2006 में दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि 2013 में हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में यह फैसला बरकरार रखा।
उनकी पुत्रवधू सिता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में पैसे लेकर वोट देने के आरोप लगे, जबकि बेटे बसंत सोरेन पर अवैध खनन से जुड़े आरोपों की जांच चलती रही। हालांकि झामुमो ने इन सभी आरोपों को सियासी साजिश करार दिया।

राजनीतिक विरासत और उत्तराधिकारी
अप्रैल 2025 में झामुमो के 13वें महाधिवेशन में शिबू सोरेन ने संगठन की बागडोर औपचारिक रूप से अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी। खुद संरक्षक के रूप में नामित किए गए। हेमंत पहले ही दो बार झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और 2025 विधानसभा चुनाव में झामुमो के नेतृत्व में गठबंधन को बहुमत भी मिला।
झारखंड की आत्मा में ‘गुरुजी’ की छाप
शिबू सोरेन का जीवन सिर्फ एक राजनेता का नहीं, बल्कि एक आंदोलनकारी का रहा है, जिसने हाशिए पर खड़े आदिवासियों को पहचान, सम्मान और राजनीतिक ताकत दी। उन्होंने बार-बार यह साबित किया कि सत्ता के गलियारों में भी आदिवासी आवाज गूंज सकती है।
हालांकि उनके राजनीतिक करियर पर कई विवादों की परतें चढ़ी रहीं, लेकिन वे झारखंड की आत्मा में ‘गुरुजी’ के रूप में सदा जीवित रहेंगे। उनका निधन सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन और एक युग का अवसान है।

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