
देश के प्रधान न्यायाधीश (CJI) भूषण रामकृष्ण गवई पर सार्वजनिक रूप से जूता फेंके जाने की घटना ने देश की राजनीतिक और न्यायिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। जूता फेंकने वाले वकील के दुस्साहस के बाद, जिस तरह CJI गवई ने अपूर्व संयम दिखाते हुए, स्थिरचित्त होकर अपना सामान्य काम शुरू कर दिया, उसने हम सबका सिर गर्व से ऊँचा कर दिया है। उनका यह व्यवहार आज के क्षुद्र राजनीतिक माहौल में स्वप्नवत प्रतीत होता है।
यह घटना न केवल व्यक्तिगत निंदा का विषय है, बल्कि यह उस नैतिक पतन का भी संकेत है, जिसके बारे में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आधी शताब्दी पहले 1973 में कहा था: “देश के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत जब एकदम से बिखर जाती है, तब सभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां पैदा हो जाती हैं।” आज का राजनीतिक वर्ग इसी नैतिक हैसियत के बिखराव का शिकार है, जिसने सारे देश को ‘क्षुद्रता का डेंगू’ दे दिया है।
जूता दलित पर नहीं, असहमति पर फेंका गया
इस घटना के बाद हर जगह यह चर्चा हो रही है कि जिस पर जूता फेंका गया, वह संयोग से दलित हैं। लेकिन यह कहना अधूरा सत्य है। सच यह है कि यह जूता किसी दलित पर नहीं फेंका गया है, बल्कि यह असहमति पर फेंका गया वह जूता है, जो सत्ता में बैठे लोग दशकों से लगातार फेंकते आ रहे हैं। घृणा आज इनके दर्शन की संजीवनी बूटी बन गई है।
न्यायमूर्ति गवई देश के प्रधान न्यायाधीश हैं। हमें उन्हें न दलित, न सवर्ण, बल्कि हमारी न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायमूर्ति कहना चाहिए। न्याय की कोई जाति नहीं होती, और न ही न्यायाधीश की। जब दिल और दिमाग से जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, भाषा, प्रांत की लकीरें मिटती हैं, तभी न्याय का ककहरा लिखने की शुरुआत होती है। हमारी यह चाह है कि पूरा देश ऐसे ही बने, जहाँ योग्यता का मान हो।

पिछले कुछ सालों में, देश के तंत्र ने नागरिकों के हाथ में यही ‘जूताग्रस्त मानसिकता’ थमा दी है कि अपना जूता दूसरों पर फेंको। जो लोग दूसरों पर कीचड़ उछालते हैं, वे धीरे-धीरे उन्हीं की तरह होते चले जाते हैं।
न्यायपालिका की ‘असामान्य’ चुप्पी
न्यायमूर्ति गवई ने प्रधान न्यायाधीश बनते ही कहा था कि वह डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को माथे पर धरकर चलते हैं। जबकि आदर्श रूप से, किसी भी न्यायमूर्ति के माथे पर केवल संविधान होना चाहिए—न गांधी हों और न आंबेडकर। उनकी आस्था की छाया भी उनके फैसलों पर नहीं पड़नी चाहिए।
आज हमारी न्यायपालिका ऐसे चल रही है, जैसे देश में कुछ भी असामान्य नहीं है। यह विरोधाभासी है कि जिस संविधान और लोकतंत्र की वजह से न्यायपालिका का अस्तित्व है, उस पर रोज-रोज हमले हो रहे हैं, यह हमें दिखाई देता है, मगर अदालतों को नहीं।
सांविधानिक महत्व के मुद्दों को, नागरिक स्वतंत्रता के सवालों को प्राथमिकता के आधार पर सुना जाना चाहिए, और न्यायपालिका को जो भी कहना हो, वह स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए। ऐसा रवैया संविधान को मजबूत नहीं बनाता है, न ही बाबा साहब भीमराव आंबेडकर को ‘जिंदा’ करता है।
संतुलन नहीं, संविधान का पालन ज़रूरी
संविधान ने न्यायपालिका को यह ज़िम्मेदारी दी है कि वह लोकतंत्र के साथ खड़ा रहे, और यही उसके होने की सार्थकता है। आज के दौर में यह सबसे आसान काम है—बस आंबेडकर का लिखा संविधान खोलिए और उसके आधार पर सही या गलत का फैसला कीजिए।
न्यायपालिका को यह याद रखना चाहिए कि संविधान ने उन्हें यह नहीं कहा है कि आपको संतुलन साधना है या बीच का रास्ता निकालना है। सत्य या न्याय संतुलन से नहीं, संविधान के पालन से सिद्ध होता है।
न्यायाधीश बनने के लिए बड़ी शिक्षा, विदेशों से डिग्री या किसी पूर्व जज का परिजन होना पर्याप्त नहीं है। यह योग्यता और पात्रता संविधान के साथ खड़े होने की हिम्मत से आती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल के दौरान पाँच जजों में से चार ने संविधान को रद्दी की टोकरी में फेंककर, सरकार की खैरख्वाही की थी। भारतीय न्यायपालिका का वह दाग आज तक नहीं धुला है।
बात किसी सरकार के पक्ष या विपक्ष में फैसला देने की नहीं है, बात है उस लिखे हुए संविधान का पालन करने की, जो देश की जनता ने न्यायपालिका को सौंपा है।
जूता चला, यह बहुत बुरा हुआ। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना वरदान बन सकती है, यदि इसने हमारी न्यायपालिका को नींद से जगा दिया। जिस असहिष्णुता ने समाज का स्वभाव बना दिया है, उसके अपराधी पकड़े जाएँ—इसके लिए प्रतिबद्ध न्यायपालिका अगर अपनी कमर सीधी कर खड़ी हो जाए, तो जूता अपनी सही जगह, यानी पांव में वापस पहुँच जाएगा।

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