
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधायिका से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने की नियत समयसीमा तय करने के संवैधानिक मसले पर गंभीरता दिखाते हुए केंद्र सरकार और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है। यह मामला देश के संघीय ढांचे, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विधायी व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। शीर्ष अदालत ने संकेत दिए हैं कि इस पर अगस्त से विस्तृत सुनवाई शुरू की जाएगी।
तमिलनाडु के मामले से मिली संवैधानिक बहस को गति
यह मुद्दा पहली बार इस साल अप्रैल में उस समय जोर पकड़ गया जब तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास आरक्षित कर दिया था और उनमें निर्णय लंबित हो गया था। राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने के बाद, कोर्ट ने सभी विधेयकों को पारित मानते हुए स्पष्ट किया था कि राज्यपाल को इस तरह के मामलों में निर्णय टालने का अधिकार नहीं है।
कोर्ट ने तय की थी तीन महीने की समयसीमा
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यदि विधानसभा कोई विधेयक पास करती है और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर उस पर निर्णय लेना होगा। यह आदेश ऐतिहासिक माना गया, क्योंकि इससे विधेयकों की अनिश्चितकालीन लटकने की प्रक्रिया पर रोक लग सकती है। इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक नया संतुलन स्थापित होने की उम्मीद है।
संविधान पीठ करेगी व्यापक विवेचना
कोर्ट के इस हस्तक्षेप के बाद राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को 14 सवालों का प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजा गया है। इसके आधार पर एक संविधान पीठ का गठन किया गया है, जो विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका, समयसीमा और अनुच्छेद 200 व 201 की व्याख्या पर चर्चा करेगी।
राज्यपाल के विवेकाधिकार पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन शामिल थे, ने यह स्पष्ट किया था कि राज्यपाल के पास दोबारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने का कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपाल को केवल मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कार्य करना होता है, और उनके पास कोई व्यक्तिगत विवेकाधिकार नहीं है।
राजनीतिक हलकों में हलचल, संघीय ढांचे पर असर
इस मामले ने केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों और जिम्मेदारियों की सीमाओं पर नवीन बहस को जन्म दिया है। कई राजनीतिक दल इसे लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में आवश्यक कदम मान रहे हैं, वहीं कुछ इसे कार्यपालिका पर न्यायपालिका के अति-हस्तक्षेप के रूप में भी देख रहे हैं।
आगे की राह
अब जब मामला संविधान पीठ के पास पहुंच चुका है और केंद्र व राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया जा चुका है, तो आने वाले महीनों में यह स्पष्ट होगा कि भारत का संविधान किस प्रकार विधायी निर्णय प्रक्रिया में समयसीमा सुनिश्चित करता है। यह फैसला न केवल विधायी प्रक्रिया को गति देगा, बल्कि संघीय संतुलन की व्याख्या में भी मील का पत्थर साबित हो सकता है।

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