
बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने निर्वाचन आयोग से कड़े सवाल पूछे हैं। गुरुवार को न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की आंशिक कार्य दिवस पीठ ने इस मुद्दे पर सुनवाई की और निर्वाचन आयोग से दो टूक कहा कि नागरिकता जांच के मामले में उसे पहले ही कदम उठा लेने चाहिए थे। अदालत ने साफ कहा कि अब इसमें ‘‘थोड़ी देर हो चुकी है।’’
दरअसल, बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण के तहत मतदाता सूची को नए सिरे से दुरुस्त करने और उसमें नागरिकता से जुड़े दस्तावेजों की जांच की योजना पर कई राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने आपत्ति जताई है। इस संबंध में शीर्ष अदालत में कुल 10 से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं, जिन पर सुनवाई की जा रही है। याचिकाकर्ताओं में ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ जैसे गैर सरकारी संगठन के साथ-साथ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के कई प्रमुख नेता शामिल हैं।
न्यायालय ने पूछा — नागरिकता जांच निर्वाचन आयोग का विषय कैसे?
सुनवाई के दौरान न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से पूछा कि जब नागरिकता की जांच गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आती है तो आयोग इसे अपने स्तर पर कैसे कर सकता है? पीठ ने कहा, ‘‘यदि आपको बिहार में नागरिकता के पहलू को देखना ही था तो इसके लिए पहले से ही ठोस तैयारी करनी चाहिए थी, अब थोड़ी देर हो गई है।’’
निर्वाचन आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने तर्क रखा कि संविधान के अनुच्छेद 326 के अनुसार भारत में मतदाता बनने के लिए नागरिक होना अनिवार्य है और इस संदर्भ में नागरिकता का सत्यापन आवश्यक है। द्विवेदी के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल और मनिंदर सिंह भी निर्वाचन आयोग की ओर से अदालत में उपस्थित रहे।
याचिकाकर्ताओं की दलील — लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान होगा
इस मामले में याचिकाकर्ता पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण की व्यवस्था है, लेकिन बिहार में इसे जिस पैमाने पर किया जा रहा है, वह संविधान की भावना के खिलाफ है। उन्होंने अदालत को बताया कि एसआईआर के दायरे में लगभग 7.9 करोड़ नागरिक आएंगे और यहां तक कि आधार कार्ड व मतदाता पहचान पत्र जैसे मौजूदा दस्तावेजों को भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इस प्रक्रिया से लाखों लोगों का नाम मतदाता सूची से हटाया जा सकता है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गंभीर असर पड़ेगा।
विपक्षी नेताओं का मोर्चा — 10 से अधिक पार्टियों की संयुक्त याचिका
बिहार एसआईआर के खिलाफ दायर याचिकाओं में कई राजनीतिक दलों के सांसद और नेता शामिल हैं। इसमें प्रमुख रूप से राजद सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केसी वेणुगोपाल, शरद पवार नीत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की सुप्रिया सुले, भाकपा के डी राजा, समाजवादी पार्टी के हरिंदर सिंह मलिक, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के अरविंद सावंत, झारखंड मुक्ति मोर्चा से सरफराज अहमद और भाकपा (माले) के दीपांकर भट्टाचार्य शामिल हैं।
इन सभी नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि वह निर्वाचन आयोग के आदेश को रद्द कर बिहार में मतदाता सूची के इस विशेष पुनरीक्षण को रोकने का निर्देश दे। उनका कहना है कि इस कदम से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के नाम मतदाता सूची से गायब होने की आशंका है, जिससे उनकी राजनीतिक भागीदारी प्रभावित होगी।

निर्वाचन आयोग की सफाई — ‘‘सदस्यता की शुद्धता बनाए रखना जरूरी’’
निर्वाचन आयोग ने अदालत को बताया कि उसका उद्देश्य किसी को मतदाता सूची से मनमाने ढंग से हटाना नहीं है बल्कि केवल सूची को अद्यतन और शुद्ध बनाए रखना है। आयोग के अनुसार नागरिकता की जांच इसलिए जरूरी है ताकि केवल योग्य भारतीय नागरिक ही वोट डाल सकें। आयोग ने कहा कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाएगी और किसी भी वैध मतदाता के अधिकारों का हनन नहीं होगा।
सुनवाई जारी, अदालत का फैसला अहम
गौरतलब है कि बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया को लेकर पहले से ही राजनीतिक माहौल गरमाया हुआ है। राज्य की विपक्षी पार्टियां इसे भाजपा और एनडीए सरकार की एक ‘राजनीतिक चाल’ बता रही हैं जिसका मकसद समाज के कमजोर वर्गों को मतदान से वंचित करना है। वहीं, सत्ता पक्ष इस दावे को सिरे से खारिज कर रहा है और इसे मतदाता सूची को त्रुटिरहित बनाने की प्रक्रिया बता रहा है।
अदालत में अभी सुनवाई जारी है और उम्मीद की जा रही है कि आने वाले हफ्तों में शीर्ष न्यायालय इस पर कोई ठोस आदेश देगा। अगर अदालत निर्वाचन आयोग के आदेश को रद्द कर देती है तो यह बिहार समेत पूरे देश में मतदाता सूची सुधार की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है। इसके उलट यदि आयोग को हरी झंडी मिलती है तो आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में इस मॉडल को अन्य राज्यों में भी लागू किया जा सकता है।
फिलहाल सभी पक्षों की नजर सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई और आदेश पर टिकी है क्योंकि यह फैसला न केवल बिहार के करोड़ों मतदाताओं को प्रभावित करेगा बल्कि देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को भी नई दिशा दे सकता है।

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