
नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए ऐतिहासिक प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है। 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सभी पक्षों से एक सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए संवैधानिक प्रश्नों का व्यापक प्रभाव पूरे देश की संवैधानिक प्रणाली पर पड़ेगा, इसलिए मामले की गंभीरता से सुनवाई की जाएगी।
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से मांगी राय
राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत 14 संवैधानिक सवाल भेजे हैं। उनका मुख्य सवाल यह है कि क्या अदालत राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समयसीमा निर्धारित कर सकती है, जबकि संविधान में इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति ने यह भी जानना चाहा है कि यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजते हैं तो उस स्थिति में राष्ट्रपति की शक्तियों पर कोई न्यायिक या संवैधानिक सीमाएं लागू होती हैं या नहीं।
संविधान पीठ में हुआ प्रारंभिक विचार
इस मामले की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ कर रही है, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 29 जुलाई को इस संदर्भ पत्र पर अगली सुनवाई होगी, जिसमें सुनवाई की रूपरेखा तैयार की जाएगी। इस दौरान अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी को अदालत ने सहायता के लिए आमंत्रित किया है, जबकि केंद्र की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता पक्ष रखेंगे।
तमिलनाडु और केरल ने जताया विरोध
मंगलवार को हुई प्रारंभिक सुनवाई के दौरान तमिलनाडु और केरल की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने राष्ट्रपति के संदर्भ पत्र की वैधानिकता पर सवाल उठाए। केरल की ओर से के. के. वेणुगोपाल और तमिलनाडु की ओर से पी. विल्सन ने दलील दी कि इस मुद्दे पर पहले सुनवाई की योग्यता तय होनी चाहिए। पीठ ने उन्हें आश्वस्त किया कि नियमित सुनवाई के दौरान उन्हें अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिलेगा।
राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोकने पर पहले भी हुआ है विवाद
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 8 अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की याचिका पर फैसला सुनाते हुए यह कहा था कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। इसी के आलोक में राष्ट्रपति ने अब सुप्रीम कोर्ट से स्पष्ट दिशा-निर्देश की मांग की है कि क्या न्यायपालिका संविधान के मौन प्रावधानों की व्यााख्या कर समयसीमा निर्धारित कर सकती है।
राष्ट्रपति के 14 सवालों में प्रमुख बिंदु…
- क्या कोर्ट राज्यपालों और राष्ट्रपति के विधेयक अनुमोदन पर निर्णय लेने की समयसीमा तय कर सकता है?
- क्या बिना राज्यपाल की मंजूरी के राज्य विधानमंडल का कोई विधेयक कानून बन सकता है?
- क्या अनुच्छेद 361 राज्यपालों के फैसलों की न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
- क्या राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत निर्णय लेने की प्रक्रिया और समयसीमा को न्यायिक आदेश से नियंत्रित किया जा सकता है?
- क्या न्यायपालिका किसी विधेयक की विषयवस्तु पर निर्णय ले सकती है, जब तक वह कानून नहीं बना हो?
- क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के आदेशों को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत बदला जा सकता है?
संवैधानिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण मोड़
राष्ट्रपति द्वारा भेजा गया यह संदर्भ पत्र भारतीय संविधान के कार्यान्वयन की प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक पड़ाव है। यह मामला केवल तकनीकी कानूनी सवालों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की संघीय प्रणाली, विधायी प्रक्रिया और कार्यपालिका की जवाबदेही से जुड़ा एक महत्वपूर्ण संवैधानिक विमर्श है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने वाले समय में न केवल विधेयकों की स्वीकृति प्रक्रिया को स्पष्ट करेगा, बल्कि संघ और राज्यों के बीच की संवैधानिक सीमाओं को भी पुनर्परिभाषित कर सकता है।

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