
आधुनिक युग के आध्यात्मिक पुनर्जागरण के अग्रदूत, वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने अपना जीवन मानव चेतना के उत्थान और एक नए, नैतिक समाज के निर्माण के लिए समर्पित कर दिया। 20 सितंबर 1911 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के आंवलखेड़ा गांव में एक साधारण परिवार में जन्मे इस युगऋषि ने गायत्री मंत्र की शक्ति के माध्यम से युग परिवर्तन का संदेश दिया।
बचपन से आध्यात्मिक यात्रा तक
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का बचपन आध्यात्मिकता की ओर झुकाव से भरा था। मात्र नौ वर्ष की आयु में ही उन्होंने गायत्री मंत्र की दीक्षा ली, जो उनके जीवन की दिशा तय करने वाली पहली महत्वपूर्ण घटना थी। समाज के विरोध के बावजूद, एक कुष्ठ रोगी महिला की निःस्वार्थ सेवा करने की उनकी उदारता ने उनके भीतर मौजूद गहरी करुणा को दर्शाया।
15 वर्ष की आयु में, वसंत पंचमी (18 जनवरी 1926) के शुभ दिन पर, एक हिमालयी योगी स्वामी सर्वेश्वरानंद उनके समक्ष प्रकट हुए। गुरु ने उन्हें उनके पूर्व जन्मों का स्मरण कराया और उनके जीवन के महान उद्देश्य से परिचित कराया। इसके बाद, आचार्य ने गायत्री मंत्र के 24 महापुरश्चरण पूरे किए, प्रत्येक में 24 लाख मंत्रों का जप किया। उनकी आत्मकथा, ‘हमारी वसीयत और विरासत’, इस कठोर तपस्या और साधना की यात्रा का मार्मिक विवरण प्रस्तुत करती है।

स्वतंत्रता संग्राम और युग निर्माण का संकल्प
आचार्य का जीवन केवल आध्यात्मिकता तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने देश की स्वतंत्रता में भी सक्रिय भूमिका निभाई। 1923-24 से ही महात्मा गांधी की प्रेरणा से जुड़कर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और कई बार जेल गए।
आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, उन्होंने चार बार हिमालय की यात्रा की (1937, 1959, 1971, 1984), जहां उन्होंने गहन साधना की और ‘युग निर्माण’ की अपनी योजना को अंतिम रूप दिया। 1933 से उन्होंने देशव्यापी भ्रमण शुरू किया और रवींद्रनाथ टैगोर तथा अरविंद घोष जैसे महान विचारकों से मुलाकात की।
1938 में, उन्होंने अपनी पत्रिका ‘अखंड ज्योति’ के माध्यम से ‘विचार क्रांति अभियान’ का आरंभ किया, जिसका उद्देश्य साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के माध्यम से समाज में नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना था।
गायत्री परिवार की स्थापना और सामाजिक सुधार
1943 में, उनका विवाह भगवती देवी शर्मा से हुआ, जो उनकी आध्यात्मिक यात्रा और सामाजिक कार्यों में उनकी सच्ची जीवनसंगिनी बनीं। 1946 में, दोनों ने अपनी सारी संपत्ति बेचकर समाज कल्याण के कार्यों के लिए समर्पित कर दी।
1953 में, उन्होंने मथुरा में गायत्री तपोभूमि की स्थापना की, जो गायत्री परिवार के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। यहां उन्होंने 2400 तीर्थों का जल और 2400 करोड़ गायत्री मंत्र की हस्तलिखित प्रतियां स्थापित कीं। 1958 का सहस्र कुंडीय गायत्री महायज्ञ ‘युग निर्माण योजना’ की नींव बना। 1963 में, उन्होंने ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’ का नारा दिया, जो आज भी उनके अनुयायियों के लिए प्रेरणा है।
1972 में, उन्होंने हरिद्वार में शांतिकुंज की स्थापना की, जिसे आज गायत्री परिवार का वैश्विक मुख्यालय माना जाता है। 1979 में, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना के माध्यम से उन्होंने विज्ञान और आध्यात्मिकता के संश्लेषण पर जोर दिया। उनके शिष्यों ने 2002 में देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो मूल्याधारित शिक्षा प्रदान करता है।

साहित्य सृजन और सामाजिक क्रांति
श्रीराम शर्मा आचार्य का साहित्य में योगदान अतुलनीय है। उनके 3,000 से अधिक ग्रंथों को ‘वंग्मय’ के 108 खंडों में संकलित किया गया है। उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण और दर्शन जैसे कठिन ग्रंथों को सरल हिंदी में अनुवादित कर आम लोगों तक पहुंचाया। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘गायत्री महाविज्ञान’ और ‘प्रज्ञा पुराण’ शामिल हैं।
आचार्य ने समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को तोड़ने का भी काम किया। उन्होंने हरिजनों और महिलाओं को गायत्री दीक्षा दी, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने महिलाओं के वैदिक पाठ के अधिकार को शास्त्रों से प्रमाणित किया और लाखों महिलाओं को गायत्री जप से जोड़ा।
2 जून 1990 को गायत्री जयंती के दिन, मात्र 78 वर्ष की आयु में उनका महासमाधि में लीन हो जाना, उनके जीवन का अंतिम अध्याय था। 1998 में, उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में सम्मानित किया गया, और 1991 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया।
आज, उनका आध्यात्मिक आंदोलन विश्व गायत्री परिवार के रूप में 15 करोड़ से अधिक सदस्यों और 5,000 से अधिक केंद्रों के साथ दुनिया भर में फैला हुआ है। वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जीवन और दर्शन आज भी लाखों लोगों को प्रेरित कर रहा है।

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