
लद्दाख को अलग राज्य का दर्जा देने और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर शुरू हुआ शांतिपूर्ण आंदोलन जिस तरह अचानक हिंसक हो उठा, उसने पूरे देश को चिंता में डाल दिया है। यह आंदोलन भले ही लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के नेतृत्व में चल रहा था, लेकिन इसकी वास्तविक कमान पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक के हाथों में थी। उनकी मंशा शांतिपूर्ण विरोध की रही होगी, किंतु यह स्पष्ट है कि वे आंदोलन में शामिल राजनीतिक कार्यकर्ताओं और उग्र तत्वों पर नियंत्रण नहीं रख पाए।
हिंसा की भयावह तस्वीर
आंदोलन के दौरान भाजपा कार्यालय को आग के हवाले करना, लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद को नुकसान पहुंचाना और सुरक्षा बलों के वाहनों पर हमला करना इस बात का संकेत है कि आंदोलन में असामाजिक तत्वों की घुसपैठ हो चुकी थी। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब गृह मंत्रालय ने 6 अक्टूबर को प्रतिनिधिमंडल से बातचीत का समय तय कर दिया था, तब भी हिंसा भड़क उठी। इससे यह सवाल उठता है कि क्या यह आंदोलन वास्तव में लोकतांत्रिक मांगों को लेकर था या किसी राजनीतिक साजिश का हिस्सा?

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप
भाजपा प्रवक्ता संचित पात्रा ने आरोप लगाया है कि इस उग्र प्रदर्शन के पीछे कांग्रेस का हाथ है, जिसने इसे जन-जागरण आंदोलन का रूप देने की कोशिश की। वहीं कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने केंद्र सरकार पर स्थिति को संभालने में देरी का आरोप लगाया है। नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा कि लद्दाख की अशांति जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा न देने के कारण उपजा व्यापक असंतोष है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सोनम वांगचुक के भड़काऊ भाषणों को मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार ठहराया है।

मांगों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
लद्दाख की मांगों का इतिहास भी कम रोचक नहीं है। जब यह जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था, तब केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मांगा जाता रहा। अनुच्छेद 370 हटने के बाद यह दर्जा मिल गया, लेकिन अब अलग राज्य की मांग जोर पकड़ रही है। इसके पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, जैसे प्रशासनिक सुविधा, सांस्कृतिक पहचान और क्षेत्रीय विकास, लेकिन इन मांगों को हिंसा के माध्यम से उठाना न केवल लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा है।
विकास के बावजूद असंतोष क्यों?
आज लद्दाख में वे सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जो पहले दुर्लभ थीं—सड़क, बिजली, संचार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं। ऐसे में युवाओं को भड़काना और जनजीवन को बाधित करना किसी गहरी साजिश का हिस्सा लगता है। यह भी चिंता का विषय है कि आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है।
सरकार की जिम्मेदारी और रास्ता आगे
इस परिस्थिति में सरकार को कठोरता और संयम, दोनों का सहारा लेना होगा। हिंसा फैलाने वालों की पहचान कर उन्हें सख्त सजा दी जानी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई भी अराजकता फैलाने की हिम्मत न कर सके। साथ ही, संवाद का रास्ता खुला रखा जाए ताकि वास्तविक मांगों पर विचार हो सके। लोकतंत्र की असली ताकत टकराव में नहीं, संवाद में है।

युवाओं की भूमिका और चेतना
युवाओं को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र में अपनी बात रखने का तरीका हिंसा नहीं, बल्कि विचार-विमर्श और शांतिपूर्ण विरोध है। उन्हें यह जानना चाहिए कि उनकी ऊर्जा देश निर्माण में लग सकती है, न कि उसे तोड़ने में। लद्दाख की स्थिति देश के लिए एक चेतावनी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा केवल सरकार नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग की जिम्मेदारी है।
लद्दाख में भड़की हिंसा केवल एक क्षेत्रीय आंदोलन नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरे की घंटी है। यह समय है कि सभी पक्ष संयम बरतें, संवाद को प्राथमिकता दें और लोकतांत्रिक मर्यादाओं की रक्षा करें। तभी देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की मजबूती सुनिश्चित हो सकेगी।

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