
भारतीय राजनीति के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्हें उनके साहस और ईमानदारी के लिए हमेशा याद किया जाएगा। इन्हीं में से एक नाम है फ़िरोज़ गांधी का। जवाहरलाल नेहरू के दामाद और इंदिरा गांधी के पति होने के बावजूद, उन्होंने सत्ता के गलियारों में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से कभी संकोच नहीं किया। उनकी निडरता का सबसे बड़ा उदाहरण 1957 का ‘मूंदड़ा घोटाला’ था, जिसने आज़ाद भारत में पहली बार बड़े स्तर पर हुए वित्तीय अनियमितता का पर्दाफ़ाश किया।
संसद में गूंजी निडर आवाज़: मूंदड़ा घोटाले का पर्दाफ़ाश
संसद के शांत वातावरण में एक युवा सांसद की आवाज़ गूंजी, “क्या यह सच नहीं है कि कुछ विशेष अधिकारियों और मंत्रियों के संरक्षण में सरकारी धन का दुरुपयोग हो रहा है?” यह सवाल था फ़िरोज़ गांधी का, जो 1952 में रायबरेली से लोकसभा सांसद चुने गए थे। फ़िरोज़ गांधी ने तत्कालीन सरकार को हिलाकर रख दिया। उन्होंने संसद में सबूतों के साथ बताया कि कैसे भारत सरकार के स्वामित्व वाली जीवन बीमा निगम (LIC) ने कलकत्ता के एक व्यापारी हरिदास मूंदड़ा की छह घाटे में चल रही कंपनियों में 1.2 करोड़ रुपए का निवेश किया था।
यह कोई सामान्य सवाल नहीं था, बल्कि यह सीधे तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार पर एक बड़ा हमला था। फ़िरोज़ ने जो सबूत पेश किए, वे इतने मज़बूत थे कि सरकार को झुकना पड़ा। प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने दामाद के इस कदम की सराहना की, भले ही उनकी सरकार के लिए यह शर्मिंदगी का कारण बना। इस घोटाले के बाद, तत्कालीन वित्त मंत्री कृष्णमाचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा, जिसने यह साबित कर दिया कि फ़िरोज़ गांधी किसी के प्रभाव में नहीं, बल्कि अपने सिद्धांतों के लिए काम करते हैं।

महात्मा गांधी से प्रेरणा: ‘घांडी’ से ‘गांधी’ तक का सफ़र
12 सितंबर 1912 को बॉम्बे में एक पारसी परिवार में जन्मे फ़िरोज़ का बचपन का नाम फ़िरोज़ जहांगीर घांडी था। उनके पिता एक वकील थे, लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। पिता के निधन के बाद, उनकी मां उन्हें लेकर इलाहाबाद आ गईं। यहीं पर उनकी मुलाक़ात भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं से हुई। यह इलाहाबाद की वह ज़मीन थी, जिसने एक सामान्य युवा को क्रांतिकारी बना दिया।
जब फ़िरोज़ ने महात्मा गांधी का भाषण सुना, तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना सरनेम ‘घांडी’ से बदलकर ‘गांधी’ कर लिया। उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। इसी दौरान वे नेहरू परिवार के क़रीब आए और जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा से उनकी दोस्ती हुई, जो बाद में प्यार में बदल गई।
स्वतंत्रता संग्राम और व्यक्तिगत जीवन
फ़िरोज़ और इंदिरा का रिश्ता कोई साधारण रिश्ता नहीं था। 1942 में, जब ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ, तो दोनों को जेल जाना पड़ा। इसी समय उनका रिश्ता और भी गहरा हुआ। 1942 में उनकी शादी हुई, जिसने कई लोगों को हैरान कर दिया, लेकिन यह शादी सिर्फ़ दो लोगों का नहीं, बल्कि दो ऐसे समर्पित व्यक्तियों का मिलन था जो देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को सर्वोपरि मानते थे।
शादी के बाद भी, फ़िरोज़ का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने कुछ समय के लिए “नेशनल हेराल्ड” और “नवजीवन” जैसे अख़बारों को चलाने में मदद की। उन्होंने अपनी निर्भीक लेखन शैली से पत्रकारिता की दुनिया में भी एक छाप छोड़ी।

फ़िरोज़ गांधी का राजनीतिक दृष्टिकोण
फ़िरोज़ गांधी की राजनीति सिर्फ़ भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था, ऊर्जा नीति और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी अपनी राय रखी। उन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को भी बढ़ावा दिया। वे मानते थे कि देश की प्रगति के लिए ईमानदार और पारदर्शी प्रशासन ज़रूरी है। उनका मानना था कि नेता को अपनी ज़िम्मेदारी को समझना चाहिए और जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। उनकी यह सोच आज भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिक है।
दुर्भाग्य से, उनकी राजनीतिक यात्रा छोटी रही। फ़िरोज़ को दिल का दौरा पड़ा और 8 सितंबर 1960 को मात्र 48 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनका निधन भारतीय राजनीति के लिए एक बड़ी क्षति थी, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा मानदंड स्थापित किया था जो आज भी नेताओं को प्रेरित करता है। फ़िरोज़ गांधी ने यह साबित किया कि सत्ता में रहकर भी सत्ता को चुनौती दी जा सकती है और सही मायने में लोकतंत्र की रक्षा की जा सकती है।

नेता और नेतागिरि से जुड़ी खबरों को लिखने का एक दशक से अधिक का अनुभव है। गांव-गिरांव की छोटी से छोटी खबर के साथ-साथ देश की बड़ी राजनीतिक खबर पर पैनी नजर रखने का शौक है। अखबार के बाद डिडिटल मीडिया का अनुभव और अधिक रास आ रहा है। यहां लोगों के दर्द के साथ अपने दिल की बात लिखने में मजा आता है। आपके हर सुझाव का हमेशा आकांक्षी…



