
हाल ही में बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधती रॉय की नई किताब “मदर मैरी कम्स टू मो” के प्रकाशन ने एक अजीबोगरीब बहस छेड़ दी है। इस बहस का केंद्र न तो किताब की विषय-वस्तु है, न ही लेखिका की माँ मैरी रॉय की कैथोलिक महिलाओं को तलाक का अधिकार दिलाने की लंबी लड़ाई, बल्कि किताब का मुखपृष्ठ है, जिस पर एक लड़की सिगरेट पीती नज़र आ रही है।
इस तस्वीर ने डिजिटल मीडिया में जैसे आग लगा दी है। एक तरफ, किताब के समर्थक इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और महिलाओं के चुनाव का अधिकार बताते हुए कह रहे हैं कि किसी किताब का मूल्यांकन उसके मुखपृष्ठ से नहीं किया जाना चाहिए। वे यह भी सवाल उठा रहे हैं कि नैतिकता की सारी कसौटियाँ सिर्फ महिलाओं पर ही क्यों लागू होती हैं? उनके अनुसार, यह तस्वीर महिलाओं की अपनी पसंद को दर्शाती है और इसे ‘नैतिक पुलिसिंग’ के दायरे में लाना गलत है। कुछ लोगों ने इस बहस में प्रसिद्ध साहित्यकारों, मुक्तिबोध और राजेंद्र यादव, को भी घसीट लिया है, जिनकी किताबों के कवर पर क्रमश: बीड़ी और सिगार पीते हुए उनकी तस्वीरें छपी थीं।
दूसरी तरफ, इसके विरोधी इस बहस को पूरी तरह से गलत दिशा में ले जाने का आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि यह मुद्दा ‘नैतिक पुलिसिंग’ का नहीं, बल्कि स्वास्थ्य का है। उनका तर्क है कि सिगरेट पीना किसी भी व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, के लिए हानिकारक है और इसे ‘प्रगतिशीलता’ या ‘स्त्रीवाद’ से जोड़ना बेहद आपत्तिजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और डॉक्टर लगातार इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि तंबाकू का सेवन कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का एक प्रमुख कारण है। ऐसे में, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को लिंग के आधार पर अलग करना उचित नहीं है।

बाज़ारवाद की मार्केटिंग चाल
यह बहस इस बात पर भी ध्यान खींचती है कि क्या यह सिर्फ एक राजनीतिक और सामाजिक बहस है, या फिर यह प्रकाशकों और लेखकों की एक सुनियोजित मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा है? प्रकाशकों के लिए किताब एक उत्पाद है, जिसे उन्हें अधिकतम लाभ के लिए बेचना है। इस मार्केटिंग की दुनिया में, जहर को भी अमृत बनाकर बेचा जा सकता है, बस बेचने का तरीका आना चाहिए।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि किसी भी उत्पाद को बेचने के लिए विवाद पैदा करना एक पुरानी और सफल रणनीति है। इस मामले में, सिगरेट पीने को स्त्री-पुरुष समानता से जोड़ा जा रहा है, और जो लोग इस पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक बताकर उनकी आलोचना की जा रही है। क्या यह संभव है कि अरुंधती रॉय और उनके प्रकाशक इस विवाद का लाभ उठाना चाहते हों, जैसा कि उनके अलगाववादी विचारों के लिए भी हुआ है?
सिगरेट और आज़ादी का झूठा रिश्ता: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
सिगरेट को महिलाओं की आज़ादी से जोड़ना कोई नई बात नहीं है। इसका एक ऐतिहासिक उदाहरण 1920 के दशक के अमेरिका में मिलता है, जब सिगरेट कंपनी के मालिक जॉर्ज वाशिंगटन हिल ने अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए एक अनोखी मार्केटिंग रणनीति अपनाई। उस समय, अमेरिका में महिलाओं के अधिकारों का आंदोलन तेज़ी से बढ़ रहा था, लेकिन महिलाएं सार्वजनिक रूप से सिगरेट नहीं पीती थीं।
हिल ने मशहूर जनसंपर्क विशेषज्ञ एडवर्ड बर्नेज से संपर्क किया, जिन्होंने सिगरेट को महिलाओं की समानता और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में पेश किया। उन्होंने कई अमीर महिलाओं को पैसे देकर न्यूयॉर्क की सड़कों पर सिगरेट पीते हुए रैली निकालने के लिए मना लिया। 1929 में, यह रैली “टॉर्चेज ऑफ फ्रीडम” (Torch of Freedom) के नाम से निकाली गई, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से सिगरेट पी। इस घटना को मीडिया में खूब प्रचार मिला और सिगरेट को महिलाओं की आज़ादी का प्रतीक बना दिया गया, जिससे कंपनी की बिक्री में भारी उछाल आया।

यह घटना दर्शाती है कि कैसे मार्केटिंग की दुनिया में किसी हानिकारक उत्पाद को भी सामाजिक प्रगति के प्रतीक के रूप में बेचा जा सकता है। भारत में भी, पहले सिगरेट के विज्ञापन में इसे पीने वाले को शक्तिशाली और “असली मर्द” के रूप में दिखाया जाता था, लेकिन बाद में सरकार ने इन पर प्रतिबंध लगा दिया। आज भी, फिल्मों में धूम्रपान के दृश्य के साथ वैधानिक चेतावनी दी जाती है कि “धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।”
लेकिन आज, एक किताब उस सिगरेट के चित्र के कारण चर्चा में है, और इस पर कोई चेतावनी भी नहीं है। क्या यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं है कि हम इस तरह के विवादों में फंसकर स्वास्थ्य संबंधी खतरों को नज़रअंदाज़ न करें? क्या किसी हानिकारक आदत को ‘आज़ादी’ का प्रतीक बताना सही है? यह बहस हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वास्तव में उन चीज़ों को प्रगतिशीलता मान रहे हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं? क्या नैतिकता और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं आज के दौर में बेमानी हो गई हैं? और क्या हम बाज़ारवाद की इन चालाकियों को पहचान पाते हैं?

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