
वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया अंतरिम आदेश ने इस मुद्दे के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को उजागर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर पूरी तरह से रोक लगाने से इनकार कर दिया है, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे अहम सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब आने वाले समय में अंतिम सुनवाई के दौरान दिया जाएगा। इस अंतरिम आदेश के तीन प्रमुख बिंदु हैं, जो कानून के भविष्य और इसके क्रियान्वयन को प्रभावित करेंगे।
कानूनी इतिहास और पारदर्शिता का मुद्दा
पहला महत्वपूर्ण पहलू इस कानून का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने वक्फ संपत्तियों के कुप्रबंधन के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद पाया कि अंग्रेजों ने 1923 में जो कानून बनाया था, उसमें संपत्तियों की जांच-पड़ताल के लिए प्रावधान मौजूद थे। कोर्ट ने सवाल उठाया कि 100 साल पहले के इन प्रावधानों को आज क्यों नहीं लागू किया जा सकता?
यह आदेश चरणजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ मामले में 1950 के संविधान पीठ के फैसले पर आधारित है, जिसमें कहा गया था कि किसी भी कानून की संवैधानिकता हमेशा उसके पक्ष में होती है। यह चुनौती देने वालों की जिम्मेदारी है कि वे साबित करें कि संसद द्वारा पारित कानून से मौलिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है।
दूसरा पहलू वक्फ संपत्तियों के पंजीकरण से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, 1923 के कानून में वक्फ के पंजीकरण की आवश्यकता थी। बंगाल के 1934 के कानून में वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए राज्य सरकार की जवाबदेही तय की गई थी। हालांकि, 1995 के कानूनी संशोधन में वक्फ संपत्तियों के पंजीकरण का प्रावधान था, जिसे 2013 में मनमोहन सरकार ने खत्म कर दिया था। इस बदलाव ने वक्फ बोर्ड को मनमानी के अधिकार दिए और सिविल अदालतों के क्षेत्राधिकार को कम कर दिया। 2025 के नए कानूनी संशोधन में इसी पारदर्शिता को वापस लाने का प्रयास किया गया है।
न्यायिक प्रक्रिया और बेंच का गठन
तीसरा अहम बिंदु न्यायिक प्रक्रिया से संबंधित है। यह एक अंतरिम आदेश है, जो अंतिम सुनवाई के फैसले को प्रभावित नहीं करेगा। शुरुआत में इस मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस संजीव खन्ना के पास थी, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अब चीफ जस्टिस गवई की दो जजों की बेंच ने यह अंतरिम आदेश जारी किया है। इन जटिल मामलों में अगर दो जजों के बीच मतभेद होता है, तो फैसला तीसरे जज के बहुमत से हो सकता है। इसलिए, इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए न्यूनतम तीन जजों की बेंच का गठन होना चाहिए। इस संबंध में राज्यों को नियम बनाने हैं।
यह मामला नागरिकता कानून और पूजा स्थल उपासना कानून जैसे अन्य मामलों की तरह वर्षों तक चल सकता है। हालांकि, अंतिम फैसला आने तक अंतरिम आदेश के अनुसार, वक्फ कानून के अधिकांश प्रावधानों पर अमल हो सकता है। मामले के जल्द निपटारे के लिए पांच सदस्यीय संविधान पीठ का गठन एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
याचिकाओं में उठाए गए अहम सवाल
वक्फ बिल पर संसद की संयुक्त समिति में लंबी बहस हुई, जहां सरकार ने 14 संशोधन स्वीकार किए। कई अन्य संशोधनों को स्वीकार नहीं किया गया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की गईं। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि नया कानून धार्मिक स्वतंत्रता सहित कई मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति:
विरोधियों ने आपत्ति जताई कि जब अन्य धर्मों की संपत्तियों के प्रबंधन में सरकार का हस्तक्षेप नहीं है, तो वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों की नियुक्ति समानता और धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। इस पर सरकार ने आश्वासन दिया कि गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या अधिकतम 2-4 रहेगी। कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में इसे शामिल करते हुए कहा कि केंद्रीय वक्फ परिषद में अधिकतम चार और राज्य वक्फ बोर्डों में अधिकतम तीन गैर-मुस्लिम सदस्य हो सकते हैं।
धर्मांतरण और दान का मुद्दा
एक अन्य आपत्ति यह थी कि दानदाता के लिए पांच साल से अधिक समय से मुस्लिम होने की शर्त और गैर-मुस्लिमों को वक्फ के माध्यम से दान से वंचित करना भेदभावपूर्ण है। इस पर कोर्ट ने कहा कि जब तक राज्य सरकारें यह तय करने के लिए नियम नहीं बनातीं, तब तक इस कानून पर अमल नहीं होगा। वक्फ का मुद्दा जबरन धर्मांतरण से भी जुड़ा है, जिसके कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट से अपने पास ट्रांसफर करने का आदेश दिया है।
कलेक्टर के अधिकार और पारदर्शिता
विरोधियों ने यह भी आरोप लगाया कि कानून में कलेक्टर के हस्तक्षेप से वक्फ की जमीन सरकारी हो जाएगी। सरकार ने स्पष्ट किया कि कलेक्टर केवल प्रारंभिक जांच करता है और अंतिम फैसला ट्रिब्यूनल या कोर्ट का होता है। कोर्ट ने भी यह माना कि कलेक्टर को नागरिकों के संपत्ति अधिकारों पर फैसला करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
मौखिक वक्फ और पंजीकरण
ऑ चौथी आपत्ति के अनुसार, पहले मौखिक वक्फ भी मान्य थे, लेकिन अब पंजीकरण की अनिवार्यता और लिमिटेशन कानून लागू होने से विवाद बढ़ेंगे। सरकार ने कहा कि इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और फर्जी वक्फ रुकेंगे। कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान 2013 से पहले के कानून में था, इसलिए इसे फिर से लागू करना गलत नहीं है।
यह कानून वक्फ को पारदर्शी बनाने की 1969 से चली आ रही मांग और 2006 की सच्चर समिति की सिफारिशों के अनुरूप है। यह कानून राज्यों के सहयोग से ही लागू होगा। विरोधियों को यह समझना चाहिए कि 2013 में तुष्टीकरण के लिए किए गए कानूनी बदलावों को संसद द्वारा रद्द करना असंवैधानिक नहीं हो सकता। अंततः, इस कानून से वक्फ संपत्तियों का सही इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए सुनिश्चित होगा।

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