
कुछ लोग इतिहास नहीं रचते, वे इतिहास बनाते हैं। भारत की पहली महिला लोको पायलट, सुरेखा यादव, उन गिनी-चुनी शख्सियतों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल एक नई राह खोली, बल्कि हजारों महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनीं। 39 साल की शानदार सेवा के बाद, जब सुरेखा यादव भारतीय रेलवे से विदा हो रही हैं, तो उनके पास एक बड़ा सुकून है—यह जानकर कि उनके नक्शेकदम पर चलकर आज ढाई हजार से अधिक महिलाएं लोको पायलट के रूप में देश की सेवा कर रही हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि मानव जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता दूसरों को रास्ता दिखाने में है।
साधारण शुरुआत से असाधारण सफर
सुरेखा का जन्म 60 साल पहले महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता, सोनाबाई और रामचंद्र भोसले, प्रगतिशील विचारों के थे और उन्होंने अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा देने का फैसला किया। सुरेखा ने सेंट पॉल कॉन्वेंट हाई स्कूल में दाखिला लिया और अपनी पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहीं, खासकर गणित उनका पसंदीदा विषय था।
हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्हें शिक्षण और बैंकिंग जैसे पारंपरिक करियर अपनाने की सलाह मिली। लेकिन सुरेखा कुछ नया करना चाहती थीं। इसी दौरान उनकी नजर एक अखबार के विज्ञापन पर पड़ी, जिसमें भारतीय रेलवे ने सहायक ड्राइवर के लिए आवेदन मांगे थे। यह जाने बिना कि आज तक किसी महिला ने यह नौकरी नहीं की है, उन्होंने आवेदन कर दिया।
एक ऐतिहासिक फैसला
लिखित परीक्षा के लिए जब वह परीक्षा हॉल में पहुंचीं, तो यह देखकर हैरान रह गईं कि वह अकेली महिला अभ्यर्थी थीं। यह स्थिति इंटरव्यू में भी वैसी ही रही। उसी पल उन्हें एहसास हुआ कि यह एक ऐतिहासिक अवसर है और उन्हें देश की आधी आबादी के लिए इस बंद दरवाजे को खोलना है।

कई दिनों के इंतजार के बाद, उन्हें रेलवे से नियुक्ति पत्र मिला। यह उनके लिए किसी सपने से कम नहीं था, क्योंकि उन्होंने कभी दोपहिया भी नहीं चलाया था। अगले छह महीने उन्होंने कड़े प्रशिक्षण में बिताए और इंजन व सिग्नल की हर बारीकी को सीखा।
रेलवे में मील के पत्थर
14 फरवरी, 1989 को सुरेखा को सहायक चालक के रूप में नियुक्त किया गया और उनकी पहली जिम्मेदारी एक मालगाड़ी चलाने की थी। उन्होंने अपनी पहली मालगाड़ी, एल-50, को वाडी बंदर से कल्याण तक चलाया। 1998 में उन्हें मालगाड़ी परिचालन का पूर्ण दायित्व सौंपा गया और 2000 में वह ‘मोटरवुमन’ बन गईं, जिसके बाद उन्होंने यात्री गाड़ियों का संचालन भी शुरू किया।
उनकी मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि 8 मार्च, 2011 को उन्होंने देश के सबसे जोखिम भरे रेलमार्ग पर प्रसिद्ध ‘दक्कन क्वीन’ को चलाया। सुरेखा यादव ने अपने पारिवारिक और पेशेवर जीवन के बीच भी अद्भुत संतुलन साधा। अब, जब 30 सितंबर को वह अपनी सेवा से मुक्त हो रही हैं, तो पूरा देश इस दिलेर बेटी को सलाम कर रहा है। उनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों को यह बताती रहेगी कि अगर इरादे मजबूत हों, तो कोई भी बाधा बड़ी नहीं होती।

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