
मध्य प्रदेश और राजस्थान से कथित रूप से ज़हरीले कफ सिरप के कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत की दिल दहला देने वाली खबरों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह त्रासदी भारतीय दवा निर्माण, वितरण और निरीक्षण की संपूर्ण प्रक्रिया में मौजूद गंभीर खामियों को उजागर करती है।
यह संकट सितंबर की शुरुआत में सामने आया, जब मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के परासिया में छोटे बच्चे एकाएक स्वास्थ्य जटिलताओं के चलते दम तोड़ने लगे। शुरुआत में, स्थानीय अधिकारियों ने दूषित जल स्रोतों, मच्छरों और चूहों की आबादी जैसे सामान्य कारणों की जाँच की, लेकिन कोई ठोस वजह सामने नहीं आई। जांच की प्रक्रिया में यह बात भी सामने आई कि माता-पिता की असहमति के कारण बच्चों का पोस्टमार्टम नहीं कराया जा सका, जिससे शुरुआती जांच में बाधा आई।
हालांकि, जब एक-एक करके सभी बच्चों के शरीर में किडनी के काम करना बंद होने की बात सामने आई, तब अधिकारियों का ध्यान कफ सिरप की ओर गया और मामला गंभीर हो गया।

विषैले रसायन की निर्धारित सीमा का उल्लंघन
जांच में पाया गया कि इस त्रासदी के पीछे तमिलनाडु स्थित श्रीसन फार्मास्युटिकल कंपनी द्वारा निर्मित ‘कोल्ड्रिफ’ (Coldrif) कफ सिरप है। इस सिरप में डायथिलीन ग्लाइकॉल (Diethylene Glycol) जैसे अत्यंत विषैले रसायन निर्धारित सुरक्षित सीमा से कहीं अधिक मात्रा में पाए गए हैं। दावा किया जा रहा है कि इस कोल्ड्रिफ कफ सिरप से मध्य प्रदेश में कई बच्चों की मौतें हो चुकी हैं।
इसी तरह की एक और दिल दहलाने वाली खबर राजस्थान से भी आई है, जहां कथित तौर पर तीन बच्चों के मरने की खबर है। इन मौतों का जिम्मेदार कायसन फार्मा के एक कफ सिरप को माना जा रहा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह केवल एक कंपनी का नहीं, बल्कि नियामक तंत्र की विफलता का मामला है।
क्या 2022 की त्रासदियों से हमने सीखा?
यह घटना तुरंत 2022 में गांबिया और उज्बेकिस्तान में कथित रूप से भारतीय सिरप के कारण हुई बच्चों की मौतों की याद दिलाती है। यह त्रासदी एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा करती है कि क्या पिछली घटनाओं से भारतीय दवा नियामक व्यवस्था ने कोई सबक सीखा है?
वास्तविकता यह है कि हर राज्य में ड्रग कंट्रोलर दवा के प्रत्येक बैच की जांच के लिए जिम्मेदार होता है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह निरीक्षण एक औपचारिकता बनकर रह गया है।
सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति सरकारी वितरण में है। ऐसे दृष्टांत सामने आए हैं, जिनमें गुणवत्ता परीक्षण में विफल रही दवाएं भी सरकारी योजनाओं के तहत फिर से वितरित की जा रही हैं। ऐसे में, यह सवाल खड़ा होता है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त बांटी जाने वाली दवाएं कितनी सुरक्षित हैं। यह तंत्रगत भ्रष्टाचार और असाध्य संवेदनहीनता की ओर स्पष्ट इशारा करता है। ऐसी विडंबनाएं देश की ‘दुनिया के फार्मेसी हब’ वाली छवि पर गहरा आघात पहुंचाती हैं।

तत्काल और ठोस कार्रवाई की आवश्यकता
इस त्रासदी के बाद, दोनों राज्य सरकारों (मध्य प्रदेश और राजस्थान) ने विवादित सिरपों पर तत्काल प्रतिबंध लगाया है और जांच के आदेश दिए हैं। केंद्र सरकार ने भी इस संबंध में एडवाइजरी जारी की है और मामले की जांच के लिए एक समिति भी गठित की है।
हालांकि, अब समय आ गया है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि यह कार्रवाई केवल प्रतीकात्मक न रहे। दवा उद्योग और नियामक संस्थाओं की जवाबदेही (accountability) कठोरता से तय की जानी चाहिए। लाइसेंस रद्द करने से लेकर दोषियों को कड़ी सजा देने तक, सभी कदम बिना किसी देरी के उठाए जाने चाहिए ताकि व्यवस्था में ठोस बदलाव आ सकें।
वहीं, डॉक्टरों और फार्मासिस्टों को भी बच्चों को कोई भी सिरप या एंटीबायोटिक दवा देने से पहले पर्याप्त सतर्कता बरतने और दवा की उत्पाद गुणवत्ता जांचने की सलाह दी गई है। यह एक ऐसी सामूहिक जिम्मेदारी है, जिसमें हर स्तर पर सतर्कता ही मासूमों की जान बचा सकती है।

राजनीति में विरोधी खेमे को खोदने और चिढ़ाने वाली खबरों को अलग महत्व होता है। इसके लिए नारद बाबा अपना कालम लिखेंगे, जिसमें दी जाने वाली जानकारी आपको हंसने हंसाने के साथ साथ थोड़ा सा अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर करेगी। 2 दशक से पत्रकारिता में हाथ आजमाने के बाद अब नए तेवर और कलेवर में आ रहे हैं हम भी…..



