
वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता राजीव शुक्ला का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘किंडलबरगर ट्रैप’ एक ऐसा संकट है, जिसमें वैश्विक व्यवस्था तब अराजकता की ओर बढ़ती है जब कोई महाशक्ति नेतृत्व छोड़ देती है और कोई नई शक्ति आगे नहीं आती। बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन की कमजोरी और अमेरिका की अनिच्छा ने महामंदी और द्वितीय विश्व युद्ध जैसी आपदाओं को जन्म दिया। आज एक बार फिर वही खतरा मंडरा रहा है—अमेरिका घरेलू विभाजन और थकावट से जूझ रहा है, चीन अधिनायकवादी और अविश्वसनीय नेतृत्व पेश कर रहा है, और यूरोप अपने आंतरिक संकटों में उलझा है। ऐसे में सवाल उठता है: क्या भारत इस खालीपन को भर सकता है?
जनसंख्या और युवा शक्ति: भारत की पूंजी
भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनसंख्या संरचना है। आधे से अधिक भारतीय तीस वर्ष से कम आयु के हैं। जब पश्चिमी देश वृद्धावस्था और जनसंख्या संकुचन से जूझ रहे हैं, भारत की युवा शक्ति उसे वैश्विक नेतृत्व के लिए तैयार करती है। यह युवा वर्ग केवल श्रम नहीं, बल्कि नवाचार, विचार और डिजिटल ऊर्जा का स्रोत है। लेकिन यही वर्ग सोशल मीडिया, तात्कालिक प्रसिद्धि और उपभोक्तावाद के आकर्षण में उलझकर अपनी दिशा खो सकता है। यदि इस ऊर्जा को जिम्मेदारी और राष्ट्र निर्माण की ओर मोड़ा जाए, तो भारत न केवल खुद को, बल्कि पूरी दुनिया को किंडलबरगर ट्रैप से बाहर निकाल सकता है।
लोकतंत्र और विविधता: भारत का मॉडल
भारत की विविधता—भाषा, धर्म, जाति और संस्कृति—उसकी लोकतांत्रिक शक्ति को दर्शाती है। पश्चिम जहां पहचान की राजनीति और राष्ट्रवाद से जूझ रहा है, और चीन अधिनायकवाद थोप रहा है, वहीं भारत ने लोकतंत्र को जीवित रखा है। यह मॉडल आज की दुनिया को चाहिए, जो स्थायित्व और समावेशिता की तलाश में है।
भारतीय प्रवासी समुदाय भी इस शक्ति को वैश्विक स्तर पर बढ़ाता है। विदेशों में भारतीय त्योहारों की धूम—जैसे फ्रांस में ओणम या ब्रिटेन में गणपति विसर्जन—भारत की सॉफ्ट पावर को मजबूत करती है। लेकिन भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है—अपने लोकतांत्रिक विरोधाभासों को दूर करना।
लोकतंत्र की कसौटी पर भारत
भारत खुद को ग्लोबल साउथ की आवाज कहता है, लेकिन घरेलू स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति, अल्पसंख्यकों के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठते हैं। यदि भारत वैश्विक नेतृत्व का चेहरा बनना चाहता है, तो उसे अपने लोकतंत्र को भीतर से मजबूत करना होगा। चुनावी प्रक्रिया में धन का बढ़ता प्रभाव, मीडिया की स्वतंत्रता पर उठते सवाल और संस्थाओं पर राजनीतिक दबाव भारत की छवि को धूमिल करते हैं।

जलवायु, शिक्षा और स्वास्थ्य: नीति की प्राथमिकताएं
भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के कई वादे किए हैं, लेकिन अक्सर ये वादे बड़े उद्योगों को रियायत देने में खो जाते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में सरकार का खर्च अभी भी बहुत कम है। विदेश नीति में भी पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में अचानक बदलाव देखने को मिलता है, जिससे वैश्विक भरोसे में कमी आती है। यदि भारत पारदर्शिता, जवाबदेही और संस्थागत मजबूती को प्राथमिकता नहीं देता, तो उसकी नेतृत्वकारी छवि केवल भाषणों तक सीमित रह जाएगी।
टेक्नी-डेमोक्रेटिक मॉडल: भारत की विशिष्टता
भारत का टेक्नी-डेमोक्रेटिक मॉडल उसकी सबसे बड़ी संभावना है। यूपीआई ने डिजिटल लेनदेन को आम आदमी के लिए सहज बनाया, आधार ने पहचान को डिजिटल रूप दिया और कोविड के दौरान कोविन प्लेटफॉर्म ने स्वास्थ्य प्रबंधन में तकनीक की पारदर्शिता और दक्षता को सिद्ध किया। यह मॉडल चीन के तकनीकी अधिनायकवाद और पश्चिम के लाभ-केंद्रित पूंजीवाद के बीच एक संतुलित विकल्प पेश करता है।
लेकिन केवल विकल्प देना पर्याप्त नहीं है। शक्ति के साथ जिम्मेदारी भी आती है। वैश्विक व्यवस्था को आर्थिक हितों से अधिक सार्वजनिक वस्तुओं की जरूरत है—जैसे जलवायु वित्त, महामारी प्रबंधन, आपूर्ति श्रृंखला की स्थिरता और मानवीय संकटों में सहयोग। भारत ने इन क्षेत्रों में पहल की है, लेकिन उसे निरंतरता और विश्वसनीयता बनाए रखनी होगी।

भविष्य की चुनौतियां और भारत की रणनीति
अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी प्रतिस्पर्धा और साइबर स्पेस में संघर्ष भविष्य का सबसे बड़ा तनाव बनेगा। जलवायु परिवर्तन और प्रवासन से उत्पन्न संकट इस तनाव को और गहरा करेंगे। आपूर्ति श्रृंखलाएं टूटने पर विकासशील देशों को बड़ा झटका लगेगा। यह स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध से भी अधिक जटिल हो सकती है, क्योंकि अब संघर्ष केवल सैन्य या विचारधारा का नहीं, बल्कि तकनीक, स्वास्थ्य, जलवायु और आर्थिकी का सम्मिलित रूप होगा।
तीसरे ध्रुव की भूमिका: भारत का ऐतिहासिक अवसर
यही समय है जब भारत खुद को तीसरे ध्रुव के रूप में पेश करे। जिस तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने बीसवीं सदी में एशिया-अफ्रीका को एक अलग आवाज दी थी, वैसे ही इस सदी में भारत तकनीक और लोकतंत्र के एजेंडे पर दुनिया को एक नया विकल्प दे सकता है। इसके लिए उसे केवल घोषणाओं से आगे बढ़कर व्यावहारिक नेतृत्व दिखाना होगा।
भारत के पास अवसर है, लेकिन चुनौती भी उतनी ही बड़ी है। इतिहास हमेशा मौके की कसौटी पर नेताओं और राष्ट्रों को परखता है। भारत को अब इस कसौटी पर खरा उतरना होगा।

नेता और नेतागिरि से जुड़ी खबरों को लिखने का एक दशक से अधिक का अनुभव है। गांव-गिरांव की छोटी से छोटी खबर के साथ-साथ देश की बड़ी राजनीतिक खबर पर पैनी नजर रखने का शौक है। अखबार के बाद डिडिटल मीडिया का अनुभव और अधिक रास आ रहा है। यहां लोगों के दर्द के साथ अपने दिल की बात लिखने में मजा आता है। आपके हर सुझाव का हमेशा आकांक्षी…



