
उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के कैसरगंज क्षेत्र में एक बार फिर आदमखोर भेड़ियों का आतंक फैल गया है। 27 सितंबर को वन विभाग द्वारा यह दावा किया गया कि उत्पात मचाने वाले भेड़िये मार गिराए गए हैं, लेकिन अगले ही दिन मझारा तौकली गांव में खेत की रखवाली कर रहे खेदन और उनकी पत्नी के शव मिलने से यह दावा सवालों के घेरे में आ गया। शवों के पास मिले भेड़ियों के पदचिह्न इस बात की पुष्टि करते हैं कि खतरा अभी टला नहीं है।
पिछले 25 दिनों में इस इलाके में 24 लोगों पर भेड़ियों ने हमला किया है, जबकि पिछले वर्ष 11 लोग इन जानवरों का शिकार बने थे और करीब 50 घायल हुए थे। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि यह कोई सामान्य वन्यजीव संघर्ष नहीं, बल्कि एक गहराता हुआ संकट है।
पर्यावरणीय असंतुलन और हिंसक प्रवृत्ति
बहराइच का भूगोल—घने जंगलों और सरयू, घाघरा, राप्ती, गेरुवा जैसी नदियों से समृद्ध—भेड़ियों के लिए आदर्श आवास रहा है। लेकिन बरसात के बाद जैसे ही जंगलों की हरियाली सघन होती है, भेड़ियों की गतिविधियां बस्तियों की ओर बढ़ने लगती हैं। लाखों रुपये खर्च कर छह भेड़ियों को मारने और कुछ को पकड़ने के बावजूद हर दिन पचास हजार रुपये की लागत पर भी इन जानवरों को नियंत्रित नहीं किया जा सका है।

यह सवाल उठता है कि आखिर भेड़िये इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं? क्या यह केवल संख्या का मामला है या उनके व्यवहार में कोई गहरा बदलाव आया है? विशेषज्ञों का मानना है कि पर्यावरणीय असंतुलन, जंगलों की कटाई, और खाद्य श्रृंखला के टूटने से भेड़ियों की प्रवृत्ति बदल रही है।
भारतीय भेड़िया: संकट में एक प्रजाति
भारतीय भेड़िया (Canis lupus pallipes) भूरे भेड़िये की एक लुप्तप्राय उप-प्रजाति है। पूरे देश में इनकी संख्या तीन हजार से भी कम है, और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में यह संख्या तीन सौ से भी नीचे हो सकती है। आमतौर पर भेड़िये इंसानों से डरते हैं और उन पर हमला करना दुर्लभ होता है। ऐसे में उनका नरभक्षी बन जाना एक गंभीर चेतावनी है कि इंसान और वन्यजीवों के बीच का संतुलन बिगड़ चुका है।
जंगल का पिरामिड और मानव-वन्यजीव संघर्ष
जंगल के पारिस्थितिकी पिरामिड को समझें तो सबसे ऊपर घने वनों में निशाचर जीव रहते हैं, फिर ऊंचे पेड़ों और झाड़ियों वाले जंगलों में बाघ, तेंदुआ जैसे शिकारी रहते हैं। इनके शिकार हिरण, खरगोश, भालू आदि वनस्पति पर निर्भर होते हैं। जंगल और मानव बस्ती के बीच का क्षेत्र चरागाह होता है, जहां लोमड़ी, बिलाव और भेड़िये रहते हैं। ये आमतौर पर मवेशियों या अन्य छोटे जीवों पर निर्भर रहते हैं।
लेकिन जब जंगलों की सीमा सिकुड़ती है और छोटे जीवों की उपलब्धता घटती है, तो भेड़िये बस्तियों की ओर बढ़ते हैं। एक बार अगर उन्हें मानव रक्त का स्वाद लग जाए, तो वे बार-बार हमला करने लगते हैं। यह व्यवहार केवल भूख नहीं, बल्कि आदत और अवसर का परिणाम होता है।

तात्कालिक समाधान बनाम दीर्घकालिक नीति
भेड़ियों को मार देना या पकड़ लेना तात्कालिक समाधान हो सकता है, लेकिन यह दीर्घकालिक नीति नहीं है। वन्यजीवों को हिंसक बनने से रोकने के लिए उनके प्राकृतिक आवास और आहार को संरक्षित करना जरूरी है। यदि हम केवल हिंसा का जवाब हिंसा से देंगे, तो यह संघर्ष और गहराएगा।
गौरतलब है कि हमने इसी तरह चीते खो दिए थे और अब 75 साल बाद उन्हें अफ्रीकी देशों से मंगवाना पड़ा। भेड़िया भी जंगल की जैव विविधता का अहम हिस्सा है। यदि हम उन्हें खत्म कर देंगे, तो पारिस्थितिकी तंत्र में एक और कड़ी टूट जाएगी।
समाधान की दिशा: जागरूकता और संरक्षण
सरकार को चाहिए कि वह वन्यजीव विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर एक समग्र नीति बनाए। इसमें वन क्षेत्र का पुनरुद्धार, खाद्य श्रृंखला की बहाली, और ग्रामीणों को जागरूक करने जैसे कदम शामिल हों। साथ ही, भेड़ियों की गतिविधियों पर तकनीकी निगरानी और उनके व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन भी जरूरी है।
बहराइच में आदमखोर भेड़ियों का आतंक केवल एक स्थानीय संकट नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय चेतावनी है। यह हमें बताता है कि प्रकृति के साथ असंतुलन का परिणाम कितना भयावह हो सकता है। अब समय है कि हम केवल प्रतिक्रिया न दें, बल्कि समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाएं—ताकि इंसान और वन्यजीव दोनों सुरक्षित रह सकें।

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