
संसदीय और विधानमंडलों के लिए चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष से घटाकर 21 वर्ष करने की संसदीय स्थायी समिति की सिफारिश ने देश में एक नई बहस छेड़ दी है। यह प्रस्ताव जहाँ एक ओर लोकतंत्र में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने का एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ अनुभवी राजनेताओं और विशेषज्ञों का मानना है कि इतनी कम उम्र में चुनावी राजनीति की जटिलताओं को संभालना युवाओं के लिए बड़ी चुनौती होगी। यह बहस इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर केंद्रित है कि क्या युवा जोश और आदर्शवाद चुनावी राजनीति के समझौतों और दबावों के लिए पर्याप्त हैं?
पक्ष: युवा शक्ति को मिले नेतृत्व का मंच
समिति की सिफारिश के पक्ष में कई मजबूत तर्क दिए जा रहे हैं। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि भारत की 65% से अधिक आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। यदि 18 वर्ष की आयु में युवा को मतदान का अधिकार दिया जा सकता है, तो 21 वर्ष की आयु में उसे देश के नीति-निर्माण में सीधे तौर पर भाग लेने का अवसर क्यों नहीं मिलना चाहिए? यह प्रस्ताव युवाओं को केवल एक मतदाता के रूप में नहीं, बल्कि एक सक्रिय भागीदार के रूप में देखता है जो देश के भविष्य को आकार दे सकता है।
समर्थकों का मानना है कि डिजिटल युग में पले-बढ़े आज के युवा तकनीकी रूप से savvy हैं और उनके पास वैश्विक दृष्टिकोण है। वे शिक्षा, रोजगार, पर्यावरण और तकनीकी नवाचार जैसे क्षेत्रों में नए और प्रभावी समाधान ला सकते हैं। न्यूजीलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न का उदाहरण अक्सर दिया जाता है, जिन्होंने 37 वर्ष की उम्र में सत्ता संभालकर अपनी दूरदर्शिता और युवा नेतृत्व की क्षमता साबित की।
इसके अलावा, इस कदम से भारतीय राजनीति में वंशवाद और अभिजात वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती मिलने की उम्मीद है। जब अधिक युवा चुनाव लड़ेंगे, तो राजनीति में आम लोगों की भागीदारी बढ़ेगी, जिससे लोकतंत्र अधिक समावेशी और जीवंत बनेगा। सीएसडीएस-लोकनीति के 2019 के सर्वेक्षण का हवाला देते हुए यह कहा गया है कि 60 प्रतिशत से अधिक युवा मतदाता चाहते हैं कि उनके आयु वर्ग के लोग संसद में उनकी आवाज बनें।

विपक्ष: अनुभव और परिपक्वता का अभाव
इसके विपरीत, इस प्रस्ताव के विरोध में भी कई ठोस तर्क हैं। बिहार की राजनीति में एक जाना-पहचाना नाम शिवानंद तिवारी इस बहस में अनुभव और परिपक्वता के महत्व पर जोर देते हैं। वे अपने पुराने दिनों को याद करते हैं जब उनके नेता किशन पटनायक ने कहा था कि एक समाजवादी कार्यकर्ता को 40 साल की उम्र से पहले चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। पटनायक का मानना था कि 40 से पहले व्यक्ति के अंदर आदर्शवाद और कुछ कर गुजरने का जोश होता है, लेकिन चुनावी राजनीति में सफल होने के लिए अक्सर आदर्शों से समझौता करना पड़ता है।
तिवारी का मानना है कि यही तर्क आज भी प्रासंगिक है। वे कहते हैं कि 21 साल की उम्र में चुनाव जीतने की लालसा और मतदाताओं के दबाव को झेलना बेहद मुश्किल होता है। यह उम्र इतनी परिपक्वता नहीं देती कि कोई युवा संसद या विधानमंडल जैसे महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारियों को समझ सके और संभाल सके।
चुनाव आयोग भी इस विचार से सहमत नहीं है। आयोग का तर्क है कि 18 साल की उम्र में भले ही कोई व्यक्ति मतदान के लिए तैयार हो जाए, लेकिन इतनी कम उम्र में इतनी गंभीरता और परिपक्वता नहीं आती कि वह देश या राज्य के लिए कानून बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य को सफलतापूर्वक कर सके। आयोग का मानना है कि 25 साल की न्यूनतम उम्र एक उचित फैसला था और इसमें कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए।
एक जटिल समीकरण
यह बहस केवल उम्र घटाने या बढ़ाने की नहीं है, बल्कि यह इस बात पर है कि हमारा लोकतंत्र किस तरह के नेतृत्व का निर्माण करना चाहता है। एक तरफ युवाओं का उत्साह, आदर्शवाद और नए विचार हैं, जो देश को आगे बढ़ा सकते हैं। दूसरी ओर, अनुभव, धैर्य और परिपक्वता है, जो निर्णायक नेतृत्व के लिए आवश्यक माने जाते हैं।
यदि यह सिफारिश लागू होती है, तो यह निश्चित रूप से युवाओं के लिए एक सुनहरा अवसर होगा, लेकिन साथ ही यह उनके लिए एक बड़ी चुनौती भी होगी। जैसा कि शिवानंद तिवारी ने कहा, चुनावी राजनीति अक्सर उम्मीदवारों के आदर्शों की परीक्षा लेती रहती है। 21 साल की उम्र में इस तरह की परीक्षा को पास करना आसान नहीं होगा।

शायद इस समस्या का समाधान सिर्फ उम्र घटाने में नहीं, बल्कि नेताओं के लिए योग्यता मानदंड तय करने में है। अगर हम योग्य और अनुभवी नेताओं को ही चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित करें, तो हमारा लोकतंत्र स्वाभाविक रूप से अधिक परिपक्व और आदर्शवादी बनेगा। यह एक ऐसा संतुलन है जिसे भारत को अपनी लोकतांत्रिक यात्रा में खोजना होगा। क्या युवा जोश और आदर्शवाद अनुभव और परिपक्वता पर भारी पड़ सकते हैं, या दोनों को एक साथ मिलकर काम करना होगा? यह सवाल आने वाले वर्षों में भारतीय राजनीति की दिशा तय करेगा।

राजनीति में विरोधी खेमे को खोदने और चिढ़ाने वाली खबरों को अलग महत्व होता है। इसके लिए नारद बाबा अपना कालम लिखेंगे, जिसमें दी जाने वाली जानकारी आपको हंसने हंसाने के साथ साथ थोड़ा सा अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर करेगी। 2 दशक से पत्रकारिता में हाथ आजमाने के बाद अब नए तेवर और कलेवर में आ रहे हैं हम भी…..



